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आइये आईने के सामने खड़े हो जाएँ……..

WHO WE ARE
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अफजल गुरु या याकूब मेनन के प्रति किसी को क्यों संवेदना है और क्यों ऐसे लोग आज मीडिया और राजनीति के एक विशेष समूह के प्रिय बन गए हैं – पता नहीं. फिलहाल इस विषय को जाने दीजिए.

मुजफ्फरनगर बाकी है, कितना बाकी है, क्यों बाकी है, किस मकसद से और किस मद में बाकी है – इस विषय को भी जाने दीजिए.

यह भारत है और हम भारतवासी है, एक ऐसे देश के वासी जहाँ लोकतंत्र के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी अपनी हर सीमाएं तोड़ सकती है. इतनी कि आप इसके टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाकर फिर उसके पक्ष में सीना तानकर तर्क दे सकते हैं, संसद और खबरिया चैनल पर खुलेआम बहस कर सकते हैं और यह भी कम लगे तो विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव भी ला सकते हैं. कोई बात नहीं, कानून तो है ना, अपना काम करेगा – जाने दीजिए.

आतंकी इशरत जहाँ का एनकाउंटर हुआ या इस एनकाउंटर की आड़ में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का राजनीतिक एनकाउंटर करने का प्रयास हुआ – अभी के लिए इसे भी जाने दीजिए.

इन विषयों को फिलहाल इसलिए जाने इसलिए दीजिए क्योंकि मेरे ब्लॉग का विषय फाँसी पर चढ चुके अफजल और याकूब नहीं हैं और ना ही भारत के टुकड़े करने के नारे लगाते वाले कन्हैया, खालिद, अनिर्बान भट्टाचार्या और उनके दोस्त भी नहीं हैं और ना ही इशरत जहाँ का एनकाउंटर ही है.

s2मेरा विषय है “आत्महत्या”, एक छात्र द्वारा आत्महत्या जिसका उपयोग कर फिर से भारतीय राजनीति की ही हत्या की साजिश हो रही है. यह आत्महत्या “परिस्थिवश” की गयी आत्महत्या नहीं थी बल्कि यह आत्महत्या “राजनीतिवश” की गयी आत्महत्या थी. क्यों – क्योंकि जिस छात्र ने आत्महत्या की वह आरक्षित श्रेणी से आता था.

मेरा विषय है हैदराबाद सेंट्रल युनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहा अट्ठाईस वर्षीय छात्र (संभवतः दलित छात्र, क्योंकि खबर यह भी है कि वह शायद दलित नहीं था) जो कि अम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसियेशनका नेता भी था – रोहित वेमुला जिसका नाम किसी भी परिचय का मोहताज नहीं है.

मैं इस विषय पर इसलिए नहीं लिख रही हूँ कि मैं सामान्य श्रेणी से हूँ बल्कि इसलिए लिख रही हूँ कि मैं भारत की एक सामान्य और मध्यमवर्गीय आम नागरिक हूँ, किसी की पत्नी हूँ और किसी की माँ हूँ.

मैं अपने विषय पर आऊँ, इससे पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की उस रिपोर्ट पर एक नजर डालती हूँ जिसमें वैश्विक स्तर पर आत्महत्या को लेकर कुछ आंकड़े दिए गए थे. इस रिपोर्ट के मुताबिक–

  • दुनिया में हर चालीस सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है
  • तक़रीबन आठ लाख लोग हर साल आत्महत्या करके मौत को गले लगा लेते हैं.
  • आत्महत्या करने की यह प्रवृत्ति विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में ज्यादा पायी गयी है.
  • वैश्विक स्तर पर 15 से 29 आयु वर्ग का हिस्सा 35 फीसदी से भी ज्यादा है और यह दूसरा सबसे कारण भी है
  • इस वैश्विक आंकड़े के पश्चात भारत के कुछ आंकड़े भी देख लेते हैं जहाँ –

  • वर्ष भर में पच्चीस लाख से भी ज्यादा लोग आत्महत्या कर मौत को गले लगा लेते हैं और
  • गत दो दशकों में प्रति लाख इसकी दर में करीब 2.5 फीसदी की वृद्धि दर देखी गयी है.
  • 37.8 फीसद आत्महत्या करने वाले लोग 30 वर्ष से भी कम उम्र के हैं.
  • आईआईटी व आईआईएम जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों के छात्रों द्वारा आत्महत्या भी चिंताजनक है
  • s1इन आंकड़ों में आत्महत्या करने वालों के धर्म और जाति का आंकड़ा नहीं है. ऐसे में मैं क्या इस ब्लॉग के जरिये अपने विचारों के साथ क्या न्याय कर पाऊँगी, मौजूदा परिस्थियों में मुझे भी संशय होने लगा है. क्योंकि आज न्याय का मतलब तो तभी सार्थक है जब आप केवल किसी धर्म विशेष की बात करें, केवल किसी जाति विशेष की बात करें.

    सोचकर देखिये कि जिन युवाओं ने आत्महत्या जैसे कठोर निर्णय को चुना होगा उनमें से यदि कोई आरक्षित श्रेणी में आएगा, क्या तभी वह मेरे और आपके लिए चिंता और चिंतन का विषय बनेगा? क्या चिंता और चिंतन इस बात पर नहीं होने चाहिए कि सबसे युवा देश का एक युवा क्यों आत्महत्या के लिए मजबूर होता है?

    युवा वर्ग द्वारा इतनी सी उम्र में इतना बड़ा फैसला लेने का एक अर्थ तो यही है कि वे अपने भावी करियर को लेकर मानसिक द्वन्द से जूझ रहे हैं. ऐसे युवा इसका समाधान ना तो खुद ढूंढ पा रहे हैं और ना ही उनके अभिभावक और शिक्षक ही उन्हें इस दिशा में उचित मार्गदर्शन दे पा रहे हैं. रही-सही कसर हम उसे राजनीति के तराजू के दो पलड़ों में रखकर किये दे रहे हैं. और जब बात तराजू की हो तो फिर डंडी मारने से कौन चूकता है वो भी तब जब एक पलड़े पर आरक्षित वर्ग और दूसरे पलड़े पर राजनीति हो. दुर्भाग्यवश डंडी मारने की यही राजनीति तमाम चुनौतियों के लिए स्वयं चुनौती बन चुकी है. पर ध्यान रहे कि यदि युवाओं द्वारा आत्महत्या के निर्णय के लिए राजनीति को जिम्मेदार ठहराकर हमारी जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती है बल्कि ऐसे में पारिवार और सामाज की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है.

    दुखद है कि युवाओं की आत्महत्या पर चिंतन और विमर्श की बजाय आज चर्चा सिर्फ आरक्षित वर्ग के युवा रोहित वेमुला की ही क्यों है? आखिर क्यों हमारी पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएं स्वयं को कटघरे में खड़ा करने के बजाय ऊँगली दूसरों पर उठा रही हैं? यदि आरक्षण की राजनीति इसका एक कारण है तो उसे समझना होगा क्योंकि कोई आरक्षण लेकर भी राजनीति को दोष दे रहा है तो कोई आरक्षण नहीं मिल पाने के कारण राजनीति को दोष दे रहा है.

    तो क्या यह प्रासंगिक नहीं कि चर्चा में सिर्फ रोहित वेमुला को शामिल कर हर कोई राजनीति कर रहा है. सत्य तो यही है कि सामान्य हो या आरक्षित वर्ग, निराशा और अवसाद के कारणों से  आज कई युवा आत्महत्या के इस राह को चुनते  हैं. इसलिए रोहित वेमुला के लिए दोषी कौन है, इस अधूरे प्रश्न की बजाय पूरे प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए राजनीतिक शोरगुल मचता तो उचित होता, परन्तु शोरगुल हो रहा है कि एक (दलित) छात्र ने क्यों खुदकशी की?

    एक युवा का मन क्यों बीमार रहा है, वह क्यों निराशा और अवसाद से घिर रहा है इसके बारे में कोई बात नहीं करता. बावजूद इसके यदि केवल रोहित वेमुला के ही “क्यों” का उत्तर ढूँढना है तो इसका उत्तर केवल राजनीति में ही क्यों ढूंढा जाए? क्यों नहीं इस प्रश्न का उत्तर सबसे पहले परिवार और उसके बाद समाज से भी माँगा जाए? यकीन मानिये इस कड़वे सच के साथ आईने के सामने खड़ा हो पाना आसान नहीं है और इसी सच से भागते हुए लोग इस “क्यों” का उत्तर संसद के गलियारों और नेताओं की चौखट पर तलाश रहे हैं.

    यदि भारतीय संविधान के लागू होने के 66 वर्षों बाद भी देश की आधी जनसँख्या सामान्य नहीं बन पा रही तो इसमें दोष किस-किसका है?

    इस दिशा में कुछ लोगों का तर्क संभवतः यह है कि आजादी से लेकर अब तक अथक प्रयासों के पश्चात भी दलितों के इस स्वाभाव के लिए जिम्मेदार वे सवर्ण हैं जो दलितों को हमेशा इस बात का अहसास करवाते रहते हैं कि दलित हमेशा दलित था, है और रहेगा. ऐसे लोगों के लिए मेरा विनम्र निवेदन यही है कि आरक्षण के मोहपाश से निकलकर तो देखिये, अपने आपको सामान्य घोषित करके तो देखिये. हमेशा आरक्षित रहकर सामान्य कैसे बन सकेंगे, सोचकर तो देखिये.

    मैं सामान्य वर्ग से माध्यम वर्गीय परिवार से हूँ. पति सरकारी सेवा में हैं, देखते-देखते उनके आरक्षित वर्ग के कनिष्ठ सहकर्मी आज उनके बॉस हैं पर वे तो अवसाद से नहीं घिरे.

    बचपन से मेरे पुत्र के साथ मेरे पति के अधिकारी जो कि अनुसूचित जनजाति के हैं, उनका बेटा पढ़ रहा था. तनख्वाह ही नहीं रहन-सहन और ठाठ-बाट में भी वे हमसे आगे थे. दोनों ने ही बचपन से साथ पढाई की. जैसे-जैसे बच्चे उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर हुए, पुत्र के मित्र की सुविधाएँ और बढती चली गयी. दोनों बच्चों ने आईआईटी की तैयारी भी एक साथ ही की और जब जेईई एडवांस का परिणाम आया तो मेरे बेटे ने अपने मित्र से आठ अंक ज्यादा लाये. पर सामान्य कोटे में बेटे की रैंक आयी दस हजार के भी पार और उसके मित्र को मिल गया आईआईटी कानपुर में कंप्यूटर साइंस में प्रवेश. उस दिन पहली बार मेरा बेटा रोया था. इससे पहले कि बेटा मानसिक तनाव में आता या अवसाद से घिरता, मैंने उसे धैर्य बंधाया और समाज के नियम को समझाया. बेटे ने उस वर्ष फिर से तैयारी की और अगले वर्ष वो भी आईआईटी में दाखिल हो गया. मुझे लगता है कि अभिभावक का फर्ज यही है.

    s2

    इसलिए चलते-चलते अपनी उस पंक्ति को फिर से दोहराउंगी कि यदि भारतीय संविधान के लागू होने के 66 वर्षों बाद भी देश की आधी जनसँख्या सामान्य नहीं बन पा रही तो इसमें दोष किस-किसका है?

    आइये इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए हम सब एक साथ आईने के सामने खड़े हो जाएँ……..

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