जब देश में आज़ादी की जंग लड़ी जा रही थी तब आज के युवाओं का इस दुनिया में कोई अस्तित्व नहीं था और जाहिर है कि जब अस्तित्व ही नहीं था तो उस लडाई में उनके योगदान का तो कोई प्रश्न ही नहीं. पर इसका मतलब ये नहीं कि आज़ादी और गुलामी में उन्हें फर्क की समझ नहीं होगी. ये अलग बात है कि अन्य विषयों में रूचि होने के नाते इतिहास जैसे विषयों पर युवा ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते हैं. वे इतिहास बस उतना ही पढ़ते हैं जिससे अगली कक्षा के लिए स्वयं की योग्यता साबित कर सकें. शायद इसीलिए आज के युवा राजनीति को बहुत करीब से नहीं समझ पाते और जो समझते हैं तो उन्हें नाम कमाने की शायद जल्दी होती है इसलिए खुराफात कर उलटे-सीधे हथकंडे अपनाकर शॉर्टकट अपनाने की कोशिश करते हैं, जहाँ तक मेरा प्रश्न है तो यदि मैं देश की नयी राजनीति को समझ पाती तो अपने इस ब्लॉग में दिल्ली स्थित प्रख्यात जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना को और बेहतर तरीके से विश्लेषित कर पाती.
जेएनयू में अफज़ल की बरसी पर छात्रों के एक समूह द्वारा हर घर में अफज़ल पैदा होने और भारत के टुकड़े-टुकड़े कर देने जैसे नारों का राजनीतिक अर्थ वास्तब में मेरी समझ से परे है. क्योंकि मुझे नहीं लगता कि छात्र नेता बनकर राजनीति की शुरुआत करने के लिए देश विरोधी नारे लगाये जाए. यही नहीं हैरानगी तो यह देखकर है कि कांग्रेस, वामपंथी आदि पुरानी राजनीतिक पार्टियों के नेता ही नहीं बल्कि चन्द वर्षों पुरानी आम आदमी पार्टी के नेता भी मोदी व भाजपा के अंध विरोध के कारण इसी कतार में खड़े नजर आ रहे हैं और जेएनयू के दिग्भ्रमित छात्रों को उचित दिशा देने की बजाय उनका समर्थन कर रहे हैं. एक छात्र नेता की गिरफतारी के बाद दिग्गज नेताओं का जेएनयू कूच करना साबित करता है कि आखिर क्यों मोदी के राजनीतिक कद-काठी के समक्ष वे दूसरे बौने हो जाते हैं.
देश जान रहा है कि केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद से हर पखवाड़े किसी ना किसी नयी बहस को जन्म दिया जा रहा है. भले ही देश में चुनावों की व्यवस्था पांच वर्षों में हो परन्तु राजनीति की अखंड ज्योति तो हर समय सुरक्षित संजोयी जाती है, राष्ट्रनीति को किसे पड़ी है, राजनीति ही सर्वोपरि है. एक मुद्दा ठंडा हुआ नहीं कि खोजकर दूसरा मुद्दा उठा लाये और नहीं मिला तो गड़े हुए मुद्दे को ही उखाड़ कर ले आये.
क्या यह अच्छा नहीं होता कि जेएनयू में देश के खिलाफ लगने वाले नारों के पश्चात कांग्रेस, लेफ्ट और आप के नेता सरकार से मांग करते कि जिस किसी ने, जिस किसी के भी उकसावे पर इस प्रकार का नारा लगाया, उसे बेनकाब किया जाये. और इसके साथ ही स्वयं नेता होने का धर्म निभाते हुए वे उन भटके हुए युवाओं के मार्गदर्शन के लिए आगे आते?
नेतृत्व की विशेषता और उसका महत्व तभी सार्थक होते हैं जब नेतृत्व अपने सही अर्थों में हो. इन नेताओं की मंशा भले ही मात्र अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी को हर हाल में गलत साबित करना रहा हो पर क्या उसके लिए पूरे देश की संप्रभुता को चुनौती दी जाने की अनुमति है?
जो लोग जेएनयू की घटना को अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोड़कर देख रहे हैं, प्रश्न उन पर भी है क्योंकि अभिव्यक्ति की आज़ादी तभी तक देय है जब तक उससे देश पर आंच ना आये. लोकतंत्र में नारे लगाने और हवा में हाथ लहराने की आज़ादी तभी तक मान्य है जब तक वह देश का अहित ना कर रही हो. कमाल की बात है कि एक तरफ विश्वविद्यालय में भारत के टुकड़े कर देने की बात हो रही है तो दूसरी तरफ लोग इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोड़कर तर्क दे रहे हैं. जिन लोगों के मुताबिक अभिव्यक्ति की आज़ादी की यह परिभाषा है तो मुझे लगता है ऐसे लोगों को आजाद छोड़ना देश के लिए घातक है .
काश राहुल गाँधी जब जेएनयू गए तब वे वहां के छात्रों को बता पाते कि जवाहरलाल नेहरु ने जीवन पर्यंत किस सिद्धांत के विकास के लिए काम किया. जेएनयू कि ही वेबसाइट के होम पृष्ठ का अध्ययन कर लेते वो जहाँ उसके उद्देश्यों को इस प्रकार लिखा गया है “अध्ययन, अनुसंधान और अपने संगठित जीवन के उदहारण और प्रभाव द्वारा ज्ञान का प्रसार तथा अभिवृद्धि करना. उन सिद्धांतों के विकास के लिए प्रयास करना, जिनके लिए जवाहरलाल नेहरु ने जीवन पर्यंत काम किया. जैसे – राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय, धर्म निरपेक्षता, जीवन की लोकतान्त्रिक पद्धति, अन्तर्राष्ट्रीय समझ और सामाजिक समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण.
बहरहाल इस घटना ने यह तो स्पष्ट कर ही दिया है कि जेएनयू के कुछ छात्रों को नियमित पढाई के साथ-साथ राजनीति ही नहीं बल्कि बहुत कुछ और भी पढ़ाया जा रहा है जो खतरनाक है और यक़ीनन जितने दोषी वहां के छात्रों का ऐसा समूह है उससे भी ज्यादा दोषी वे लोग हैं जो इसे शह देने का प्रयास कर रहे हैं.
इंजीनियरिंग कॉलेज में इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में मेडिकल की पढ़ाई होती है पर लगता है कि जेएनयू में राजनीति के साथ ही बहुत कुछ और भी पढ़ाने की कोशिशें हो रही हैं जिसे तत्काल प्रभाव से रोका जाना चाहिए. माता-पिता द्वारा प्रारंभिक शिक्षा के पश्चात शिक्षण संस्थाओं द्वारा ही देश के भविष्य के निर्माताओं का निर्माण किया जाता है जहाँ शिक्षक एक माली की तरह हर पौधे को सींचता है जिससे वे पल्ल्वित होकर राष्ट्र निर्माण की भूमिका में सार्थक पहल कर सकें। ऐसे में सरकार द्वारा जेएनयू के छात्र संघ अध्यक्ष की गिरफ़्तारी उचित है जिसे राजनीतिक रंग दिया जाना गलत है.
यह पता लगाया जाना आवश्यक है कि जेएनयू जैसे राजनीतिक नर्सरी में ऐसे कौन से माली हैं जो देश के लिए फूल नहीं बल्कि काँटों की खेती कर रहे हैं और साथ ही यह भी कि ऐसी खेती के लिए खाद-पानी की सप्लाई कहाँ से आ रही है. क्योंकि इतना तो तय है कि भारतवर्ष की कोई भी माँ अपने बच्चे को ऐसी प्रारंभिक शिक्षा नहीं देगी जैसी जेएनयू के नारे लगाते हुए छात्रों के उस गुट में नजर आ रही है.
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