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स्वाद का पागलपन

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मेरी बातों से कम ही लोग सहमत होंगे क्योंकि ऐसी बातों के कोई निश्चित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं परन्तु यकीन मानिये यह एक अजीबोगरीब और आश्चर्यजनक सत्य है कि भूख के कारण जितनी मौतें होती हैं उससे अनेकों गुना ज्यादा मौतें खाने के कारण होती हैं. भूख के कारण हुयी दुखद मौतों के लिए हम सरकारों की नीतियों और गरीबी को दोषी ठहराते हैं और चूँकि इसके पीछे राजनीति भी की जा सकती है इसलिए यदि एक मौत भी भूख के कारण हो जाये तो मीडिया में भी इस पर बहस आम हो जाएगी. परन्तु आवश्यकता से अधिक खाने और या गलत खान-पान की आदतों के कारण हुयी मौतों को लेकर राजनीतिक संभावनाएं नहीं हैं इसलिए ना तो यह खबर बनती है और ना ही इस ऑर किसी का ध्यान जाता है. यही नहीं अधिक खाने और गलत खान-पान की हमारी आदतों के कारण अन्जाने में हम कई तरह के व्यापार को भी बढ़ावा देते हैं शायद इसीलिए विषय के ज्यादातर जानकार लोग इस दिशा में मौन रहकर तमाशा देखना ही पसंद करते हैं .

दो-ढाई इंच की जुबान के स्वाद को लेकर बेचैन लोगों को यह अंदाजा भी नहीं होगा कि स्वाद के पीछे का उनका पागलपन उनकी सेहत के साथ किस प्रकार से खिलवाड़ करते हुए उन्हें आर्थिक से कहीं ज्यादा शारीरिक रूप से खोखला करता जा रहा है खासतौर पर ऐसी गृहिणियां जो थोडा समय बचाने के लिए स्वाद के चकाचौंध करने वाले विज्ञापनों में फंसकर अपने पूरे परिवार के स्वास्थ्य को दांव पर लगा बैठती हैं उनसे तो मैं यही आशा करती हूँ कि वे अपने साथ ही अपने परिवार और बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति अविलम्ब सतर्क हो जाएँगी क्योंकि रसोई तो उन्हीं के हाथ में है.

यद्यपि हमेशा तो यह संभव नहीं है किन्तु व्यस्त और तनावयुक्त जीवन में फुर्सत के दो पलों को खुशनुमा बनाने के लिए बाहर निकलना और रेस्टोरंट में खाना स्वाभाविक है. घूमने जाना हो तो बगैर खाना खाए कोई भी परिवार घर वापस नहीं आना चाहेगा शायद मैं भी नहीं. हाँ पुराने समय की बात अलग थी जब पूरा परिवार खेलकूद के कुछ सामान के साथ ही घर के बने विशेष व्यंजन के साथ पार्क आदि निकल जाते थे. ताज़ी हवा में  घूमने के आनंद के साथ ही थोडा खेलकूद से शारीरिक व्यायाम भी हो जाता था और फिर घर के ताजे बने और शुद्ध व्यंजनों का लुत्फ़ नयी स्फूर्ति और ताजगी से भर देता था पर अब समय बदल गया है. आमतौर पर घूमने के लिए पहली पसंद बड़े-बड़े वातानुक्लित शोपिंग माल बन चुके हैं जहाँ मनोरंजन के नाम पर या तो गेम पार्लर हैं या फिर मल्टीप्लेक्स सिनेमा और खाने के लिए चमक-दमक के साथ विदेशी दुकानों की शृंखला होती है.

विदेशी खाने की दुकानों की साफ़-सफाई पर मैं कोई टिपण्णी नहीं देना चाहती क्योंकि इस मामले में निश्चित रूप से वे हमारे भारतीय दुकानों से बहुत आगे हैं और निश्चित रूप से इस मामले में हमें उनसे बहुत कुछ सीखना है. सिर्फ साफ-सफाई में ही नहीं वरन ये लोग अपने ग्राहकों के साथ ही अत्यंत मित्रवत हैं. अतः उनके साफ-सफाई और मित्रवत व्यवहार की तो मैं भी कायल हूँ परन्तु खाने के नाम पर उनके मेनू में जो भी व्यंजन उपलब्ध है उनको लेकर स्वाद के शौकीनों को मैं अवश्य सचेत करना चाहूंगी क्योंकि उनमें से ज्यादातर व्यंजन मेरी समझ से सेहत के मानकों की दृष्टि से बेहद निराशाजनक हैं और यकीन मानिये हमारे भारतीय व्यंजनों के गुणों और उनकी पौष्टिकता के सामने वे कहीं भी नहीं टिक सकते.

पर अत्यंत ही अफ़सोस और चिंता के साथ लिखना पड़ रहा है कि शून्य तकनीकी से बने सिर्फ विदेशी व्यंजनों के स्वाद ने ही नहीं बल्कि सौदर्य प्रसाधन कि सामग्रियों ने भी हम भारतीयों को बुरी तरह से प्रभावित कर रखा है. सिर्फ मैगी और बोतलबंद ठन्डे पेय ही नहीं बल्कि आज बाजार में. साबुन, शैम्पू, कपड़े धुलने का पाउडर, टमाटर सौस जैसे अनेकोनेक उत्पाद तो इस कदर छाये हुए हैं कि बाजार में जाने पर इन विदेशी कंपनियों के उत्पादों के अतिरिक्त और कोई उत्पाद दुकान पर मिलते ही नहीं हैं. कभी किसी छोटी दुकान पर यदि किसी देसी कंपनी का कोई उत्पाद मिल भी जाए तो लोकल मेड कहकर दुकानदार भी डराता है और हमारे अपने मन में भी लोकल मेड के प्रति तुच्छता बढ-चढ़कर बोलती है.

ऐसी विदेशी कम्पनियाँ कभी ठंडे पेय के नाम पर कभी गोरा बनाने के नाम पर तो कभी टू मिनट नूडल के नाम पर मानकों की अनदेखी करते हुए लोगों के स्वास्थ्य के साथ वर्षों तक खिलवाड़ करती रहती हैं और सम्बद्ध विभाग उदासीन बना रहता है. सिर्फ विदेशी ही क्यों देसी बाजार में मिलावटखोरी कम नहीं है. ऐसा भी नहीं है  कि भारत में ऐसे उत्पादों के लिए कोई मानक नहीं हैं या फिर परीक्षण के लिए प्रयोगशाला नहीं हैं परन्तु बावजूद इसके विभागों की उदासीनता और उनमें भ्रष्टाचार इन्हें  बढ़ावा देती हैं. हाल के मैगी नूडल्स विवाद के पश्चात केंद्रीय खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण ने कई और ब्रांड्स के खाद्य उत्पादों की जांच के आदेश तो दे दिए हैं पर समझदारी तो इसी में है कि अपने खान-पान को लेकर हम स्वयं जागरूक हो जाएँ और मेरे ख़याल से इस मामले में गृहिणी की भूमिका अहम है।

हमारी भारतीय संस्कृति में वैसे भी क्या, कब, कैसे और क्यों खाना है हर चीज परिभाषित है और यदि थोड़ी सी सजगता बरती जाये तो अपने घर की रसोई में बने व्यंजनों में बाजार के व्यंजनों से कहीं अधिक स्वाद तो आएगा ही साथ ही मंहगे और विषैले आहार के उपयोग से भी अपने और अपने परिवार को सुरक्षित रखा जा सकता है. इसके साथ ही एक खास बात और ध्यान रखने योग्य है कि ज्यादातर भारतीय अपने खान-पान को लेकर बेहद बेपरवाह हैं इसलिए उनके लिए मेरी प्रथम सलाह तो यही है कि जब कभी भी खाने का समय हो जाये और मन आगे पीछे होकर यह कहे कि खाऊं या ना खाऊं तो खाना बिलकुल भी ना खाएं. क्योंकि अज्ञानता और नासमझी वाला खान-पान धीरे-धीरे हमें मौत के करीब धकेलता है.

इसके साथ ही पौष्टिक आहारों को उनके पौष्टिकता के साथ ही लेने का प्रयास करें क्योंकि जब हम उन्हें ज्यादा प्रोसेस करते हैं तो उनकी पौष्टिकता नष्ट होने लगती है और उनके अंदर विषाक्तता बढ़ने लगती है. उदहारण के लिए गेहूं के ज्वारे को ही लीजिए. बहुत कम लोगों को पता होगा कि गेहूं के छोटे-छोटे पौधों की हरी पत्तियों में शुद्ध रक्त बनाने की अद्भुत शक्ति होती है और इसीलिए उसके रस को “ग्रीन ब्लड” भी कहते हैं जिसका कि पी.एच. फैक्टर मनुष्य के खून के बराबर 7.4 है. गेहूं के इस रूप को कितने लोग उपयोग में लाते हैं. गेहूं के इस रूप का रूपांतरण कर दलिया, दलिया के बाद चोकरयुक्त आटा, आटे के पश्चात फिर आता है मैदा. बाजार में गेहूं के सबसे विकृत रूप यानि मैदे से बने व्यंजन ही सबसे ज्यादा प्रचलित हैं और हम बड़े शौक से उसे खाते हैं.

इस जैसे अनेकों उदहारण हैं जिस पर पूरा ग्रन्थ तैयार हो सकता है. फिलहाल एमएसजी की मात्रा अधिक होने के कारण सरकार ने मैगी की बिक्री पर तो पाबन्दी लगा दी है पर एक प्रयास अब हम सभी को भी करना होगा कि अपने स्वाद और स्वाद के नाम पर फैलाई जा रही चकाचौंध पर यदि पाबन्दी नहीं लगा सकते तो कम से कम अंकुश अवश्य लगा लें अन्यथा हमारे स्वाद के पीछे के पागलपन की बदौलत दूसरे तो अपने व्यापार को चमकाएंगे और हम अपने स्वास्थ्य का रोना रोते रह जायेंगे.

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