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आज तुम्हारा दिन है.

WHO WE ARE
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उसका पसीना ही उसके लिए डिओडोरेंट है क्योंकि एक श्रमिक श्रम करता है शर्म नहीं.  हर रोज भरपूर पसीना बहाने के लिए उसे  किसी फाइव स्टार सरीखे दिखने वाले जिम में जाने की जरुरत नहीं बल्कि जिंदगी की हर जंग से लड़ने के लिए अपने पसीने को ही वह अपना हथियार बनाता है. खाना पचाने के लिए वह  चूरन नहीं खाता बल्कि उनकी मेहनत खुद-ब-खुद उसकी मोटी और जली हुयी रोटी भी पचा देती है. सोने के लिए मुलायम बिस्तर और वातानुकूलित संयंत्र की उसे दरकार नहीं होती बल्कि दिन भर के बाद थकान इतनी बढ़ जाती है कि फुटपाथ पर भी सो जाये तो पता ही नहीं चलता कि कब सुबह हो गयी. पहनने के लिए किसी फैशन डिज़ाइनर के डिज़ाइन किये हुए कपड़े की जरुरत नहीं उसकी  तो पहचान ही है फटी बनियान पर मैला कुचैला एक गमछा. ऐसा गमछा जो उसके लिए बहुउद्देश्यीय है जब जरुरत हुयी तो सिर पर रख लिया बोझा उठाने के लिए और जरुरत पड़ी तो बिछा लिया सोने के लिए. काम करते-करते जब प्यास लगी तो बोतल बंद पानी नहीं  बल्कि सड़क किनारे पड़ी पन्नी में ही कहीं से पानी भरकर प्यास बुझा लेता है.


जब वर्षों से कुछ नहीं बदला तो फिर अब मैं क्यों उम्मीद करूँ. पहले तो झुंझलाहट होती थी कि जब कुछ बदलने वाला ही नहीं तो क्यों लोग धरना प्रदर्शन करते हैं, संगोष्ठियाँ आयोजित करते हैं. पर धीरे-धीरे समझ आने लग गया कि ये सब भी एक हिस्सा हैं जीवन को चलाते रहने के लिए, एक मौका है संतुलन को बनाये रखने के लिए, एक मौका हैं उन लोगों के लिए जो समाज में कुछ करते हुए दिखना चाहते हैं और एक मौका है उनके लिए भी जो समाज के लिए कुछ करते रहना चाहते हैं इस आस के साथ के साथ कि कभी तो बदलेगा कुछ. पर यह बदलाव कैसा हो और कैसे किया जाए इसका किसी के पास भी सटीक उत्तर नहीं होगा.


हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मई दिवस मनाया गया, मजदूर संगठनों ने कहीं प्रदर्शन किया, कुछ लोगों ने उन पर लेख लिखा किसी ने मई दिवस के इतिहास पर प्रकाश डाला और कहीं ज्ञापन सौंपे गए. मुझे भी लगा कि आज कुछ अलग करती हों और पहुँच गयी उसी चौराहे पर जहाँ हर सुबह लगती है भीड़ उन मजदूरों की जिन्हें यह नहीं पता रहता कि आज दिहाड़ी मिलेगी भी या नहीं और मिलेगी भी तो कितनी मिलेगी इसकी कोई गारंटी नहीं.



मुझे लगा था कि वास्तव में आज तो उन्हीं श्रमिकों का ही दिन है, शायद वे भी कुछ सजधजकर आये होंगे, चौराहे पर कुछ अलग तरह की त्योहारों जैसी रौनक होगी, चेहरे पर उमंग होगी पर मैं गलत थी. कुछ भी तो नहीं बदला था कुछ मजदूर अलसाये से तो कुछ झल्लाए से खड़े थे. उनमें नौजवान भी थे तो अधेड़ भी. तभी एक महिला पर नजर चली गयी, गोद में बच्चे को लिए खडी थी. मैं उसी के पास आगे बढ़ चली. देखते ही देखते दस-बारह मजदूरों का झुण्ड मेरे इर्द-गिर्द जमा हो गया. सब के चेहरे पर एक ही प्रश्न था…….

शर्म नहीं श्रम

क्या मैं चलूँ????


मैं अचकचा गयी और मेरे यह कहते ही कि मैं तो बस यूँ ही आयी थी, उनके चेहरे लटक गए. मेरी स्थिति भी अजीब हो गयी फिर भी हिम्मत करके उस महिला से बात कर ही बैठी. मई दिवस के बारे में जानती हो तुम??? महिला तो कुछ नहीं बोली लेकिन गोद में बैठा बच्चा सहमकर उससे और चिपट गया. अच्छा आप लोग तो जानते होंगे कि आज मई दिवस है, मजदूर दिवस, जानते हैं आप लोग??? पीछे से आवाज आयी, जानकर क्या कर लेंगे. तभी उनमें से एक युवा सामने आया बोला मैडम जी इंटर पास हूँ पर यहाँ आपके सामान्य ज्ञान के प्रश्नों का जवाब जब तक दूंगा उसी बीच कोई साहब आकर किसी और मजदूर को लेकर चला गया तो क्या आज की दिहाड़ी आप देंगी??? उसके शब्दों की तल्खी और उसके पीछे छुपे कारणों को मैं समझ सकती थी फिर भी मैं अपने आपको रोक नहीं सकी और पूछ बैठी कि अगर तुम पढ़े-लिखे हो तो कुछ और काम क्यों नहीं करते??? जवाब के बदले प्रश्न मिला क्या करूँ, मेहनत करने के लिए तैयार खड़ा हूँ, और क्या करूँ???


मुझे भी लगा प्रश्न करना कितना आसान था पर क्या उसका उत्तर मेरे पास है???


श्रमिक दिवस पर मेहनत के ऐसे प्रतीकों को मैं कुछ दे तो नहीं सकी लेकिन मन नमन कर बैठा जो शर्म नहीं बल्कि श्रम करते हैं.  वे किसी को कुछ और तो नहीं दे सकते लेकिन सुबह से शाम कड़ी मेहनत करते हुए दूसरों को मेहनतकश और ईमानदार बनने की सीख अवश्य देते हैं. यह उन्हीं की मेहनत का कमाल है जो आज हम बहुमंजिली इमारतें, शॉपिंग मॉल, मेट्रो और हाईवे का आनंद ले पा रहे हैं, मोटरगाड़ियों में घूम पा रहे हैं और खुद का बोझ उठाने से बचे हुए हैं. उनका नियोक्ता हर दिन बदल जाता है क्योंकि उसे भी नहीं पता होता कि कल जब वो चौराहे पर खड़ा होगा तब कौन आएगा उससे उस दिन काम करवाने और दिहाड़ी देने। त्यौहार या छुट्टी का मतलब उस दिन की दिहाड़ी गयी और मैं चली थी पूछने कि आज तो तुम्हारा दिन है, ‘श्रमिक दिवस क्यों नहीं मनाया’?


दूर कहीं से आवाजें आ रही थीं ‘मजदूर एकता जिंदाबाद’, ‘हमारी मांगें पूरी हों’, शायद कुछ सरकारी कर्मचारी इकठ्ठे होकर अपने नेता के साथ नारे लगा रहे थे.

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