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अनुभवों के विश्वविद्यालय

WHO WE ARE
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चेहरा अभी ज्यादा झुर्रीदार नहीं हुआ था उनका सरकारी सेवा से निवृत हुए अभी मुश्किल से सात-आठ साल ही हुए थे, शायद यही बताया था उन्होंने. इधर कुछ दिनों से कभी-कभी उनके चेहरे पर शून्यता वाली थकान नजर आने लगी थी. और भी कई बदलाव देख रही थी उनमें मैं, उनकी चिंता जब बढती थी तो कदम लडखडाने लग जाते थे. ऐसे में थोडा सा भी तेज कदम बढ़ाना पड़ जाए या थोडा ज्यादा चलना पड़ जाए तो निगाहें सहारे की तलाश में अगल-बगल किसी को तलाशने लग जाती थीं पर कुछ भी हो कभी भी नागा नहीं होने देते थे और सुबह पाँच बजे से पहले ही जब बाकी के योग साधक आना शुरू होते थे उन सबके आने के पहले आकर जितनी हो सके चटाइयाँ बिछा डालते थे वे. उनके इस समर्पण भाव से मैं भी चकित रह जाती थी. लोगों को योग सिखाते-सिखाते बरबस ही अकसर उनके लिए मेरे मुंह से तारीफ निकल जाती थी. हालाँकि आँखों की रौशनी भी कम पड़नी शुरू हो चुकी थी और कभी थोडा ज्यादा चलना हुआ तो सांस भी फूलती हुयी प्प्रतीत होती थी बावजूद इसके समय का अनुपालन हो या सेवा भाव, लोगों से मेल-जोल हो या फिर विभिन्न सम-सामयिक मुद्दों पर बहस, हर जगह बेताब रहते थे कुछ कहने के लिए पर घर-परिवार के बारे में बात करने से कतराते थे. कभी होली-दीवाली जैसे त्योहारों में योग की कक्षा बंद करनी पड़ जाए तो उनकी उदासी और घबराहट छलक ही जाती थी जिसके कारण का अहसास मुझे तब हुआ जब एक दिन बात करते-करते वे अपने आप को रोक नहीं सके और आखिरकार आपबीती सुनाते हुए बरबस ही उनके मुंह से निकल पड़ा कि वंदना जी आप कभी हम जैसों के इस दर्द को भी शब्द दीजिए. मैंने उन्हें समझाया कि मैं कोई लेखिका नहीं हूँ और मेरे लिखे हुए से कुछ बदलने वाला भी नहीं परन्तु यदि इससे आपको संतुष्टि मिलती है तो यह मेरे लिए खुश होने का एक मौका होगा..

मेरे मन में आश्चर्य था कि शास्त्रों  में तो  हमें वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात पूरी वसुधा ही हमारा परिवार है की भावना सिखाई गयी थी  फिर ऐसा क्या होता जा रहा है  इस समाज को जो यह भावना तो दूर अपने ही वृद्ध माँ-बाप को भूलकर सिमटते और सिकुड़ते हुए ऐसे  परिवार में तब्दील हो रहे हैं  जहाँ परिवार का अर्थ पति-पत्नी और बच्चे ही क्यों रह जा रहे हैं. वैसे नौबत तो यहाँ तक आ चुकी है कि माता-पिता भरण-पोषण जैसे कानून भी कहीं-कहीं लागू हैं जिसके तहत तहत दस हजार रुपये का जुर्माना एवं तीन माह की कैद तक का भी प्रावधान है. पर क्या इससे उस माली को वो सब कुछ मिला पायेगा जिसने बीज रोपने से लेकर आंधी-तूफ़ान से बचाव तक अपने खून-पसीने और दिन-रात को एक कर दिया था?

वैसे देखा जाए तो एकल परिवार की ऐसी व्यवस्था का खामियाजा सिर्फ घर के बुजुर्ग ही नहीं भुगतते हैं बल्कि इससे घर के बच्चों का लालन-पालन एवं उनका संस्कार भी बुरी तरह से प्रभावित होता है. युवा माता-पिता अपने बच्चे का ख्याल तो फिर भी रख ही ले जाते हैं परन्तु उनका क्या जिन्होंने अपनी पूरी जमा-पूँजी इस उम्मीद में खर्च कर डाली कि उनका बेटा बड़ा होकर बुढापे में उनकी लाठी बन उन्हें सहारा देगा. यक़ीनन ऐसी व्यवस्था का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है घर के वरिष्ठ सदस्य अर्थात घर के बुजुर्ग को.

परिस्थितयों को समझने मुझे उनके घर जाना पडा और तब मैं समझ सकी कि संभवतः यह सब तेज भागती  जिंदगी का प्रभाव ही  है कि उस घर के सबसे अनुभवी और वरिष्ठ सदस्य आखिर क्यों अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रहे थे. सभी सदस्य अपने-अपने हिसाब से ठीक व्यव्हार कर रहे थे फिर भी घर का बड़ा-बुजुर्ग टूटते  सामाजिक ताने-बाने और उपेक्षाओं के शिकार लग रहे थे. एक वजह शायद भी था कि बच्चे अपने वर्तमान में व्यस्त थे और उनके माता-पिता भविष्य को संजोने में लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव में पहुँच चुके बुजुर्गवार के पास तो केवल उनका भूतकाल ही बचा थे साझा करने के लिए जिसे सुनने और समझने वाला कोई नहीं था और यदि था भी तो उसके पास समयाभाव था.

उस घर में छोटे बच्चे के लिए तो सभी चिंतित थे परन्तु घर के सबसे बड़े बच्चे की किसी को कोई परवाह नहीं लग रही थी. बुजुर्गवार का बेटा और बहू दोनों ही अपनी-अपनी नौकरी पर जाने के लिए तैयार हो रहे थे और प्लानिंग बन रही थी कि बच्चे का एडमिशन किस स्कूल में कराया जाए जिससे उसकी शिक्षा अच्छी हो पाए पर प्लानिंग में बुजुर्ग के राय की आवश्यकता किसी को जरुरी नहीं लग रही थी, किसी को इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि उनके साथ कोई आया हुआ है.

मैं आश्चर्यचकित नहीं थी क्योंकि मुझे पता है कि सभी जागरूक माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाने के लिए अपनी सारी सुख-सुविधा त्याग कर अपने व्यस्त समय में से भी समय निकालकर तथा बच्चों की हर ख्वाहिश पूरी करने के लिए बेताब रहते हैं. उनके सपनों को पूरा करने, उच्च शिक्षा और स्वास्थ्य देने के साथ ही अच्छे घर में शादी-व्याह तक को ही अपना मकसद बना लेते हैं. लेकिन थोड़ी आश्चर्यचकित तब अवश्य  होती हूँ जब वही बच्चे बड़े होते ही ऐसे व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें उनका ही  ध्यान नहीं रहता जो उनके जन्मदाता हैं. पर इसमें गलती सिर्फ किसी एक की नहीं है. अपने  बच्चे को किताबी ज्ञान देने के लिए माता-पिता अच्छे  स्कूल तो तलाश लेते  हैं किन्तु बुजुर्गों की उपेक्षा करके व्यवहारिक ज्ञान से भरपूर जीवन के अनुभवों के विश्वविद्यलय यानि घर के बुजुर्ग से ही  उन्हें वंचित कर देते हैं.

एक बच्चा वर्तमान में खुश रहना जानता है लेकिन उसके माता-पिता को भविष्य की चिंता सताती है लेकिन घर के बुजुर्ग जिसने अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर लिया हो उसके पास रह जाता है उसका भूतकाल जो उसके अनुभवों का खजाना होता है और अपने जीवन की परीक्षाओं को सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करने के लिए दूसरे अन्य विरासत के साथ ही अनुभवों का व्यावहारिक ज्ञान हमें हमारे बुजुर्ग ही दे सकते हैं. शायद इसीलिए मैं उन्हें अनुभवों का विश्वविद्यालय भी मानती हूँ. अतः यकीन मानिये कि घर के बुजुर्ग हमारी जिम्मेदारी के साथ ही हमरी और हमारे बच्चों की जरुरत भी हैं. साथ ही यह भी मत भूलिए कि कल को जब यही बच्चे बड़े होंगे तब इन्हीं सब व्यवहारिक ज्ञान के अभाव में उनका आचरण भी वैसा ही होगा जैसा वे आज सीख रहे हैं.

चलते-चलते एक बात ओर, धर्म ग्रन्थों की मान्यता के अनुसार श्राद्ध के दिनों में हमलोग अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक याद करते हैं और उनकी आत्मा को तृप्त करने के लिए तर्पण आदि करते हुए उनके प्रति अपने ऋण को चुकता करते हैं पर काश उनके जीवित रहते हुए भी कुछ ऐसी व्यवस्था हम बना पाते क्योंकि यदि जीते जी सुख नहीं दे पाए तो मरने के बाद किसने देखा है. समाज भी उतना ही स्वस्थ होता है जितनी उसकी संस्थाएँ  यदि संस्थायें विकास कर रही हैं तो समाज भी विकास करता है और यदि वे क्षीण हो रही हैं तो निश्चित रूप से समाज भी क्षीण होगा. एक भरा पूरा संयुक्त परिवार भी स्वस्थ समाज के लिए एक ऐसी ही संस्था है जिसके विकास के साथ पूरे समाज का स्वास्थ्य जुड़ा हुआ है पर आज भरे पूरे संयुक्त परिवार सिमटते हुए जिस प्रकार एकल परिवार में तब्दील हो रहे हैं ऐसे में यह सिकुडन बहुत कुछ दांव पर लगा रही है जिसमें बच्चों का भविष्य भी दांव पर है और उससे कहीं ज्यादा घर के बुजुर्गों का सम्मान व उनकी सामाजिक सुरक्षा भी दांव पर है.

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