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आखिर क्यों इस विषय के आते ही शब्द मौन होने लगते हैं और हम सब अपने मौन के साथ वाणीविहीन होने लगते हैं. आखिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि ना चाहते हुए भी कुछ करने, कुछ बोलने और कुछ लिखने को मन करता है. यह उस स्त्री नामक पात्र के अंतर्मन से उठती आवाज है जो चीख-चीखकर बहुत कुछ कहना चाहती है, स्त्री होने के नाते ना सही, एक जीवित मनुष्य होने के नाते ही सही, उसकी पीड़ा पर स्वयं को खामोश नहीं रख पा रहे हैं मेरे भी शब्द. यह पीड़ा है उस जख्म के लिए, कराह है उस स्त्री के लिए जिसके ऊपर जुल्म की इन्तेहाँ को दो वर्षों से भी ज्यादा समय हो चुका है पर उसका जिक्र आते ही ऐसा लगता है मानो जैसे दर्द की तीव्रता अपने पैमाने पर अपना पुराना रिकॉर्ड फिर से तोड़ डालेगी,
कोई इसे एक क्रूर, भयावह और डरावनी घटना कहता है तो कोई उसे एक साहसिक लड़की के साहसपूर्ण लड़ाई की कहानी बताता है पर है तो यह एक सच्ची घटना ही जिसने सबको झंकझोर कर रख दिया था. आज भले ही सबको लगता है कि इस कहानी की पटकथा दिसंबर, 2012 में लिखी गयी थी पर पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि यह एक बच्ची के जन्म के साथ उसकी जन्मकुंडली में स्वतः लिखी-लिखाई आ जाती है. कहानी में समय और मांग के साथ-साथ थोडा बहुत बदलाव हो जाता है और इसीलिए लगता है कि मैंने इससे मिलती-जुलती कहानी रामायण और महाभारत में भी पढ़ी है और आज भी हर दिन अखबार के किसी ना किसी कोने में बदलते हुए नामों और स्थानों के साथ मैं रोजाना पढ़ती रहती हूँ.
यह कहानी किसी के श्रद्धा या विश्वास से नहीं जुडी है और ना ही किसी के धर्म से जुडी है बल्कि यह कहानी उसकी है जिसे वात्सल्यमयी, ममतामयी और करुणामयी कहा जाता है, जो अपने आँचल में पूरी दुनिया के दुःख-दर्द को समेत लेने का साहस रखती है. कहानी एक स्त्री की, उसी स्त्री की जिसका नाम रामायण में सीता था तो महाभारत में बदलकर द्रौपदी हो गया. पर उस समय की कहानियों में यदि रावण और दुर्योधन नाम के खलनायक थे तो राम और कृष्ण के नाम से दो हीरो भी थे.
याद हैं ना जब माता सीता पर आन पड़ी थी तो स्वयं उनके पति और मर्यादापुरुषोत्तम राम और उनके साथ हनुमान एवं तमाम वानर सेना रावण से लड़ बैठी और सीता को उसके चंगुल से छुडा लायी. उस समय काल को त्रेतायुग के नाम से हम जानते हैं जो राम के साथ ही समाप्त हो गया. त्रेता युग की समाप्ति पर द्वापर युग आया और फिर इस बार स्त्री की भूमिका में द्रौपदी थीं जिनको उनके पति युधिष्ठिर जुए में हार बैठे और फिर उनका चीर हरण करने का दुस्साहस दुर्योधन ने किया. रावण की तरह दुर्योधन भी सफल नहीं हो सका क्योंकि वह द्वापर युग था और द्रौपदी की लाज बचाने श्रीकृष्ण स्वयं प्रकट हुए. पर वह युग भी कृष्ण के साथ ही समाप्त हो गया.
युग और समय बदल गया और वर्तमान कहानी की इन पौराणिक कहानियों से कोई तुलना ही नहीं है क्योंकि अब तो कलयुग है जहाँ ना कोई सीता है और ना ही कोई द्रौपदी और ना ही यहाँ कोई राम है और ना ही कोई कृष्ण. पर यदि इस युगांतरण में कुछ नहीं बदला तो वो है स्त्री नाम की वह पात्र और उसको बींधती समाज की कुछ खूंखार नजरें जिसे अपनी पात्रता के बारे में बार-बार लोगों को याद दिलाना पड़ता है.
युग बदल गए पर दुनिया हाईटेक हो गयी पर इस पात्र की स्थिति सुधरने के स्थान पर बिगडती चली जा रही है. उसका पहनावा कैसा हो, उसे घर से कब निकलना चाहिए और कब तक वापस आ जाना चाहिए, बाहर जाए तो किसके साथ जाए, उसे किससे मिलना चाहिए और किससे बात करनी चाहिए, उसका मेकअप कैसा हो, उसे कब और किसके सामने मुस्कुराना है और कब गंभीर हो जाना है इन तमाम बातों पर अभी भी वह अपने निर्देशक के निर्देशन का इन्तजार करती है और फिर अग्नि परीक्षा देने के लिए भी तैयार रहती है.
पहले की कहानियों में स्त्री नाम की यह पात्र उतनी ज्यादा असुरक्षित नहीं थीं क्योंकि उस समय स्त्री के साथ खलनायक की भूमिका तय करते समय हिंदी फिल्मों की तरह नायक की भूमिका को भी सशक्त किया जाता था जो अंततः खलनायक पर जीत दर्ज कर लेता था और शायद इसीलिए सीता और द्रौपदी त्रेता में राम और द्वापर में कृष्ण के होने के नाते ज्यादा असुरक्षित नहीं हुईं. पर इस युग में कहानी में नायक की भूमिका में के लिए पात्र नहीं मिल पा रहे हैं ऐसे में इस स्त्री नामक पात्र को कौन और कैसे सुरक्षित करेगा, कौन लेगा उसकी सुरक्षा का जिम्मा, इस प्रश्न का उत्तर क्या दीमापुर में मिलेगा?.
कलयुग के इस कहानी की पात्र का कोई नाम नहीं है और इसी कारण दिल्ली मामले में उसे निर्भया नाम दिया गया. उसने साहस के साथ अपनी अस्मिता और अपनी जिंदगी की जंग लड़ी और अपने आपको निर्भया साबित कर गयी. उसके निर्भय संघर्ष ने देश के लाखों-करोड़ दर्शकों को हिम्मत दी अपनी बात को उन निर्देशकों तक पहुँचाने की जिन पर जिम्मेदारी थी उसे सुरक्षित रखने की. कहानी इस तरह से आगे बढ़ी कि लोग आक्रोशित हो उठे और उस आक्रोश की गूँज ने ऊंघ रहे शासन-प्रशासन को मजबूर कर दिया महिला सुरक्षा पर गंभीर होने के लिए.
स्त्री की इस हिट कहानी को एक बार फिर एक विदेशी पत्रकारा लेस्ली उडविन के द्वारा डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाकर प्रस्तुत किया गया जिसमें शायद आरोपी समेत कुछ लोगों का साक्षात्कार भी शामिल है पर इतनी हिट कहानी की मुख्य पात्र स्त्री नदारद है क्योंकि उसे तो निर्देशक ने खलनायकों के द्वारा पहले ही मरवा दिया था ऐसे में मुझे इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं है.
पर कुछ लोगों को दिलचस्पी है उनको जो सरकार चलाते हैं. जब कहानी फिल्माई गयी थी तब की सरकार इसे ठीक से समझ पाती कि इस कहानी ने जलते दूध के समान उसका मुंह ही जला दिया और इसीलिए वर्तमान सरकार इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को छाछ की तरह फूंककर पी रही है. मुझे कोई चाव नहीं कि उस फिल्म में क्या है, अभियुक्त और अभियुक्तों के वकीलों ने क्या कहा, स्त्री पात्र के प्रति उनकी सोच का स्तर क्या है, अपनी माँ-बहन और बेटी के लिए वे क्या सोचते हैं, दूसरों की माँ-बहन और बेटी के प्रति उनका क्या नजरिया है पर हाँ यदि उत्सुकता है तो बस यही कि वो दिन कब आएगा जब इस स्त्री नाम की इस पात्र को न्याय मिल पायेगा. सृष्टि की निर्मात्री कोख में ही नहीं मारी जायेगी, लालन-पालन में उसके साथ भेद-भाव नहीं होगा, कभी घर के बाहर तो कभी घर के अंदर ही उसके साथ छेड़खानी नहीं होगी, विवाहोपरांत दहेज़ का दानव उसे नहीं सताएगा, जन्म से लेकर मृत्यु तक कभी शारीरिक तो कभी मानसिक और कभी भावनात्मक बलात्कार नहीं होगा .
तीन सौ पैंसठ दिनों में एक दिन बड़े-बड़े स्लोगन, अख़बारों में इश्तेहार और दूरदर्शन पर परिचर्चा के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ के आह्वान पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाना ठीक हो सकता है, नवरात्रों में दुर्गा और दिवाली में लक्ष्मी के रूप में भी पूजना भी ठीक हो सकता है पर क्या एक पूरे परिवार और परिवारों से मिलकर समाज को रचने में अभूतपूर्व योगदान देने वाली विश्व की इस आधी जनसंख्या के संघर्ष को विराम नहीं मिल सकता, क्या संघर्ष अनन्तकालीन है?
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