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कौन उत्पाद है और कौन ग्राहक है

WHO WE ARE
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क्या हम अपनी जरुरत के सारे काम अकेले कर सकते हैं; नहीं – बिलकुल नहीं. व्यक्तिगत कामों को छोड़कर यकीनन कोई भी व्यक्ति अपनी जरुरत के बाकी काम अकेले के दम पर नहीं कर सकता है यह तक कि व्यक्तिगत कामों को करने के लिए भी जिन चीजों की आवश्यकता होती है वो हमें दूसरे लोग ही उपलब्ध करवाते हैं. इसे पारिवारिक और सामाजिक निर्भरता कहते हैं. यदि यह निर्भरता नहीं हो तो परिवार और समाज के बंधन कमजोर पड़ने लग जाते हैं.

उदहारण के लिए मुझे कहीं जाना है, दूरी ज्यादा नहीं है तो मैं उस दूरी को पैदल तय कर सकती हूँ पर यदि दूरी ज्यादा है तो साइकिल, रिक्शा, स्कूटर, कार, ट्रेन, हवाई जहाज जैसे साधनों पर निर्भर होना होगा. यदि दूरी कम भी है तो भी जाने के लिए पैरों में चप्पल या जूते, कपड़े आदि अन्य चीजों की जरुरत होगी. इन साधनों और वस्तुओं की व्यवस्था मैं अकेले के दम पर तो नहीं कर सकती, अतः इसके लिए मुझे उन लोगों के ऊपर निर्भर होना ही पड़ेगा जो लोग इस प्रकार के उत्पाद या सेवाएं प्रदान करते हों.

मतलब साफ़ है कि हम सभी कितनी भी कोशिश कर लें अपने-अपने कामों के लिए हम सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं. एक-दूसरे पर निर्भर होने के इसी कारण से इस वृहद  समाज का ढांचा भी खड़ा है. कुछ लोग दूसरों की इस निर्भरता को बंधन के कारण निभाते हैं तो कुछ लोग इस निर्भरता को ईश्वरीय कार्य मानते हुए इसे सेवा भाव से संपन्न करते हैं और वहीं कुछ लोग इन कार्यों को करने के लिए व्यापार और उससे भी दो कदम आगे यानि मेवा  भाव से करते हैं.

एक दूसरे की मदद और एक दूसरे पर निर्भरता में जब तक सेवा भाव है कि किसी तरह दूसरों की मदद हो जाए या उससे थोडा आगे चलकर व्यापार भाव है कि एक हाथ दो और दूसरे हाथ लो तब तक तो सब ठीक, सुचारू, संतुलित और सामान्य रहता है परन्तु जैसे ही इस निर्भरता में मेवा भाव प्रवेश करता है वह विषाणु की तरह फैलकर संक्रमण फैलाना शुरू कर देता है. इसलिए अपनी निर्भरता, अपनी आवश्यकताओं और साथ ही सेवाओं को लेकर हमारा सजग रहना आवश्यक है अन्यथा आपसी समीकरण टूटने लगते हैं और परिणाम बदलने लग जाते है.

बदलते समय के साथ आज समाज में सेवा भाव की अल्पता बढ रही है जबकि लोगों में व्यापार भावना बढ रही है और इस भावना को ज्यादातर लोग तरक्की से जोड़कर देखते हैं जहां लेने और देने, लाभ और हानि के समीकरण पर सभी की निगाहें टिकी रहती हैं पर व्यपार के इस समीकरण में कौन दाता है और कौन ग्राही, कौन व्यापारी है कौन ग्राहक इसका निर्णय एक सामान्य जन के लिए मुश्किल है.

बाजार में हर रोज नए स्लोगन के साथ चल रहे सेल को लेकर ही देखिये. कहीं कोई अपना माल बेचने के लिए एक के साथ एक फ्री देने की घोषणा करता है तो कोई छूट को परसेंट में दर्शाता है और हम अपने आपको एक चतुर ग्राहक मानते हुए पहुँच जाते हैं खरीदारी के लिए. पहले तो खरीदारी और दुकान सब सीमित थे पर आजकल तो इंटरनेट का ज़माना है जहाँ सौदागरी भी घर बैठे ही कर ली जाती है.

सौदागरी की इस दुनिया में बहुत कुछ मुफ्त दर्शाया जाता है जहाँ हमें लगता है कि हम एक चतुर ग्राहक हैं. यहीं पर हम गलत होते हैं क्योंकि समय के साथ पता लगता है कि हम तो ग्राहक नहीं बल्कि उत्पाद थे. गए तो थे खरीदारी करने के लिए पर कब स्वयं बिकने लगे पता ही नहीं चलता. सौदागरी की यह मिसाल सिर्फ जरुरत के सामानों को बेचने और खरीदने तक सीमित नहीं रहतीं बल्कि ये दुकानें तो आपकी भावनाएं, जोश और सोच सब कुछ खरीद लेती हैं.

अपने आपको अति चतुर मानने वाले ग्राहक जो भगवान के दरबार में तो बड़ी चतुराई से कहते हैं कि तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा और जब अर्पण की बारी आती है तो बाजार में नहीं चल सकने वाले कटे-फटे नोट ही चढाते हैं, ऐसे बाजार में आकर कुछ ज्यादा ही मूर्ख साबित होते हैं…

खैर ये सब तो ऐसे बिजनेस मॉडल है जिन्हें ढूँढने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यक नहीं है ये तो हमारे घरों में, आस-पड़ोस में हर जगह मिल जायेंगे फिर आखिर राजनीति ही अछूती क्यों रहे और इसीलिए करीब डेढ़ वर्ष पहले चुनाव आयोग भी चिंतित हुआ था. जब आरक्षण, जातिवाद जैसे उत्पादों की बिक्री कम हो गयी थी तो मुफ्त के दूसरे राजनीतिक बिजनेस मॉडल  निकाले गए.और रंगीन टीवी, मंगल सूत्र, मोबाइल, लैपटॉप जैसे तमाम वादों वाले उत्पाद चुनाव से पहले लाये जाने लगे. थे. उस समय उच्चतम न्यायलय चिंतित हुआ था और चुनाव आयोग को इसके लिए दिशा-निर्देश तैयार करने के लिए कहा गया था.

आयोग ने इस दिशा में क्या किया और राजनीतिक दलों ने उसको कितनी गंभीरता से लिया इसका साक्षी इस बार दिल्ली विधान सभा चुनाव बना जहाँ  इसका स्वरुप बदलकर नए रूप में पेश किया गया और मुफ्त रंगीन टीवी, मंगल सूत्र, मोबाइल, लैपटॉप से अलग मुफ्त पानी, मुफ्त वाई-फाई और सस्ती बिजली की बातें कामयाब हुईं। जनता को भी आराम क्योंकि इनके क्लेम के लिए उसको कहीं भटकना नहीं पड़ेगा.

यद्यपि कुछ लोगों का मानना है कि इस प्रकार के राजनीतिक वादे और आम लोगों द्वारा उसे मिलने वाले समर्थन दर्शाते हैं कि भारत की जनता को अब आर्थिक आधार पर आरक्षण की आवश्यकता है. यह कहाँ तक तर्कसंगत है यह एक अलग विषय है पर ऐसे लोगों को बस एक ही बात कहना चाहूंगी कि पढाई और नौकरी के मामलों में तो आर्थिक आधार पर आरक्षण की आवश्यकताओं को तो समझा जा सकता है किन्तु सरकारों को ध्यान देना होगा कि वे अपनी जनता को इस योग्य बनाने पर ज्यादा ध्यान दें कि लोग अपनी जरूरतों को स्वयं पूरा करने में सक्षम हो सकें.

आज ऐसे अनुदान, राहत या राजनीतिक बिजनेस मोडल को एक लाभार्थी या ग्राहक के तौर पर तो मैं पसंद कर सकती हूँ परन्तु कभी-कभी चिंता होती है कि जब गर्मी में पानी और बिजली का टोटा पड़ेगा और लोग मुफ्त के पानी और सस्ती बिजली का मोल नहीं समझेंगे तब एक बार फिर क्या कोई  इस अमूल्य पानी और बिजली को बचाने के लिए रामलीला मैदान में अनशन करने आएगा.

यही तो आजकल का बिजनेस मोडल है जहाँ हम समझ ही  नहीं पाते कि कौन उत्पाद है और कौन ग्राहक है.

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