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किसी भी क्षेत्र में प्रयोग या अनुसन्धान शून्य सहिष्णुता के साथ संभव नहीं हो सकते हैं. नवीन प्रयोगों में कभी आप सफल भी होते हैं तो कभी असफलता भी हाथ लगती है पर दोनों ही परिस्थितियां सीखने का मौका आपसे कोई नहीं छीन सकता है. यदि आपको अपने प्रयोगों में सफलता हासिल होती है तो आपकी सर्वत्र जय-जयकार होने लगती है अन्यथा समीक्षक और विवेचक तो हर समय तैयार हैं आपके प्रयोगों की कमियों और खामियों को गिनाने के लिए. यदि प्रयोग सकारात्मक सोच के साथ किये गए हैं तो उसका प्रतिफल आज नहीं तो कल अवश्य मिलेगा।
दिल्ली विधान सभा चुनावों में जितनी चर्चा आम आदमी पार्टी की जीत की है उससे कहीं ज्यादा चर्चा भाजपा द्वारा किये नवीन प्रयोगों के कारण उसके हार की भी है. कोई इसे मोदी की हार कहने से भी नहीं चूक रहा है तो कोई इसे अमित शाह की रणनीतिक चूक.बताता है और किसी को लगता है कि बेदी का नाम आगे लाना ही भाजपा की सबसे बड़ी भूल थी। दिल्ली विधान सभा चुनावों में भाजपा की हार और आप की जीत को लेकर मोदी या अमित शाह पर तंज कसना और केजरीवाल की तारीफ करना राजनीतिक रूप से जायज है क्योंकि जो जीता वही सिकंदर परन्तु भाजपा द्वारा किरण बेदी के प्रयोग को सिरे से गलत ठहराना प्रयोगधर्मिता के नियम के विरुद्ध है. बेदी और केजरीवाल दोनों की ही पृष्ठभूमि लगभग एक सी ही है और उनके उद्देश्यों में भी समानता है. केजरीवाल ने उसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपनी राजनीतिक पार्टी का सृजन किया जबकि बेदी ने सुस्थापित पार्टी का दामन थामा।
क्या यह पर्याप्त संकेत नहीं है भाजपा की सोच में हो रहे बदलाव की?
क्या भारतीय राजनीति में किसी अन्य पार्टी से ऐसी उम्मीद की जा सकती है?
बिहार में लालू से लेकर नीतीश तक को देख लीजिये। जब लालू हटे थे तो राबड़ी आ गयीं थीं, मांझी को कमान देने के बाद नीतीश फिर कुर्सी के लिए बेचैन हैं. उ.प्र. में जब सपा जीती तो मुलायम सिंह के पास एक ही विकल्प क्या उनके पुत्र ही थे? उदाहरण तो ढेरों हैं पर विषयवस्तु भटक जाएगी और कांग्रेस का उदहारण देना अत्यंत बासी साबित होगा, अतः यहाँ यही कहना श्रेष्ठ होगा कि भाजपा ने बेदी को आगे लाकर एक नवीन, सकारात्मक और बेदाग़ प्रयोग किया, ऐसे प्रयोग को करने की हिम्मत कर पाना सभी राजनीतिक दलों के वष में नहीं है.
भाजपा के इस प्रयोग की आलोचना ना तो स्वयं भाजपा को और ना ही किसी अन्य को करनी चाहिए क्योंकि कभी-कभी कुछ प्रयोगों के परिणाम को आने में समय लगता है. अलबत्ता भाजपा के सामने एक चुनौती अवश्य है कि मोदी के नेतृत्व में वह अपने इस बदलते हुए मिजाज से अपने कार्यकर्ताओं को परिचित करा सके और उन तक सही सन्देश पहुंचा सके कि नवभारत के निर्माण के लिए उसकी सोच क्या है.
अपनी बात समाप्त करने से पहले मैं एक उदहारण देना चाहूंगी। नरेंद्र मोदी ने सफाई अभियान की जोरदार शुरुआत की, इस अभियान की बुराई करने का किसी के पास कोई कारण नहीं है पर यक़ीन मानिये मैं अक्सर ऐसे लोगों को देखती हूँ जो इस विषय पर बात करने से पहले अपने बगल में ही पान की पीक थूकेंगे और फिर कहेंगे कि अभियान तो अच्छा है लेकिन भारत जैसे देश में संभव नहीं है (क्योंकि मैं अपनी इस थूकने की आदत से बाज नहीं आऊंगा). इसके साथ ही कुछ दूसरे तरह के लोग भी मिलते हैं जिनका मानना है कि विकास के सपने दिखाकर मोदी ने लोगों को सफाईवाला बना दिया. जाहिर सी बात है स्वच्छ भारत अभियान का सही सन्देश, स्वच्छता की जरुरत जिससे सरकार को कुछ फायदा हो या ना हो पर हर आमो-ख़ास को अवश्य है, का सन्देश या तो लोग ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं या फिर गंदगी इतनी मोटी परत हमने जमा ली है अपनी सोच में कि हम उसे ही नहीं साफ़ कर पा रहे हैं.
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