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पत्रकार और पत्रकारिता

WHO WE ARE
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दूरदर्शन के खबरिया चैनल हों या फिर समाचार पत्र, इन दोनों के ही प्राण वस्तुतः समाचारों और उसे मिल रहे व्यवसायिक विज्ञापनों में बसते हैं. समाचार उम्दा ना हो, उसमें नवीनता ना हो और थोडा तड़का ना हो तो भला बुद्धू बक्से के उस चैनल को कोई क्यों देखेगा इसी प्रकार विज्ञापन भी जब चटकीला और भडकीला नहीं होगा तो देर नहीं लगेगी रिमोट के बटन को दबाने में, आखिरकार मेहनत के पैसे से डिश एंटीना ख़रीदा है, कार्यक्रम देखने के लिए हर माह कार्ड में पैसे भरवाने पड़ते हैं और अख़बार के लिए भी हर रोज चार रूपये खर्च करती हूँ तब जाकर देश दुनिया की जानकारी हासिल कर पाती हूँ. मेरी तरह ही दूसरे दर्शक या पाठक – पाठिका भी होंगे. इस मंहगाई के ज़माने में जहाँ जेब और समय दोनों की ही तंगी हो, कोई भी विज्ञापनों को देखने के लिए पैसे नहीं खर्च करता होगा क्योंकि उसे विज्ञापनों का आधार पता है. उदाहरण के लिए फेयरनेस क्रीम बनाने वाली एक कम्पनी प्रचार में कहती है कि उसके क्रीम के उपयोग से चौदह दिनों में गोरा बना जा सकता है, काश वह दक्षिण भारतीयों या फिर अफ़्रीकी देशों में जाकर इस बात को समझा पाती. इसी प्रकार हेल्थ ड्रिंक बनाने वाली एक कम्पनी अपने विज्ञापन में दावा करती है कि उसके ड्रिंक को पीने से बच्चों की लम्बाई बढ़ेगी आदि-आदि. उपभोक्ताओं को ऐसे विज्ञापनों की सत्यता पता है और ना भी पता हो तो एक बार उत्पाद खरीदने के बाद पता चल जाएगा, पर व्यापार बढाने के लिए थोड़ा सच और ज्यादा झूठ कभी-कभी चलता है ऐसे में सरकारी जागरूकता प्रचार “जागो ग्राहक जागो” आपको कितना जागरूक कर पाती है यह उपभोक्ता के ऊपर ही निर्भर करेगा.

उत्पादों के प्रचार के लिए विज्ञापनों का होना जरुरी भी है और ठीक भी है परन्तु जब समाचारों का आधार भी विज्ञापन के आधार से ही मेल खाने लगे तो यह पत्रकार और उसकी पत्रकारिता को कठघरे में खड़ा करना शुरू करती है. समाचार पत्रों के मामले में प्रायोजित समाचारों का असर उतना कारगर नहीं सिद्ध होता है जितना कि दूरदर्शन के समाचारों का, क्योंकि दूरदर्शन पर एक ही समाचार बोल-बोल कर सुनाये और रटाए दोनों ही जाते हैं इसलिए खतरा अख़बारों में छपी ख़बरों से कम और दूरदर्शन पर होने वाले प्रायोजित समाचारों से ज्यादा है क्योंकि जो कोई भी व्यक्ति किन्हीं भी कारणों से अख़बार पढ़ नहीं सकता, बुद्धू (पर अब बेहद चालाक) बक्से के माध्यम से आसानी से उन तक पहुँच बनाना ज्यादा आसान और कारगर तरीका है. अतः पत्रकारिता आज अंग्रेजी के दोनों कैरियर यानि समाचार वाहक या संवाहक और जीविका दोनों ही रूपों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है साथ ही रसूखदार लोगों से जान-पहचान और उठने-बैठने का मौका भी देती है.

पत्रकारिता के मामले में भारतीय पत्रकारिता स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही अत्यंत प्रभावी और गौरवपूर्ण रही है. उस समय में दूरदर्शन का उदय नहीं हुआ था इसलिए कई बड़े नेता या तो स्वयं समाचार पत्रों में लिखते थे या फिर अपना समाचार पत्र ही निकालते थे जिससे उनकी नीयत और नीतियों दोनों से ही लोग वाकिफ होते थे. पर आज स्थिति और पारिस्थिति दोनों ही बदल चुकीं हैं, आज ज्यादातर नेताओं के विचार और भाषण भी प्रायोजित से लगते हैं जिन्हें नेताओं को मंच पर खड़े होकर बस शब्दों में ढालना होता है, शायद समय की कमी होगी, ऐसे में वे अख़बारों में कहाँ लिख सकेंगे या शायद उन्हें भी पता है कि चार रूपये के अख़बार में छपी खबर तारीख बदलते ही रद्दी में फेंक दी जाती है.

इसलिए ऐसे समय में एक टी.वी. पत्रकार की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है पर क्या सभी टी.वी. पत्रकार अपनी भूमिका ईमानदारी से निभा रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि खोजी और साहसिक पत्रकारिता की आड़ में कुछ पत्रकार अमर्यादित आचरण करने लग गए हैं या फिर व्यवसायीकरण की चकाचौंध उन्हें लील रही है क्योंकि अकसर प्रस्तुतीकरण से ऐसा लगता है जैसे कि विशेष चैनल या पत्रकार ने जैसे किसी व्यक्ति विशेष या संस्था की सुपारी ही ले ली हो. क्या यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ जो भले ही किसी सदन का चयनित सदस्य नहीं हो, पर एक गहराता धब्बा नहीं साबित हो रहा है?

एक सच्चे पत्रकार को अपनी पत्रकारिता के समय यह ध्यान रखना ही होगा कि उसके द्वारा की गयी कहानी, स्टिंग ऑपरेशन, खोजी पत्रकारिता, राष्ट्रीय मूल्यों को और राष्ट्रीय गौरव को प्रोत्साहित करने वाली हो क्योंकि आज जब तमाम चुनाव सर पर हैं और सबसे अहम चुनाव लोकसभा का आने वाला ही है तब एक मतदाता उसे मिल रही सूचनाओं पर आश्रित होकर अपना निर्णय सुनाएगा और जब तक देश की जनता को सही और विश्वसनीय सूचनाएं नहीं मिलेंगी तब तक जनता अपने लिए उपयुक्त नेता नहीं चुन पाएगी. पूर्वाग्रहों से ग्रस्त, प्रीपेड या पोस्टपेड समाचारों से जनता के निर्णय गलत हो सकते हैं जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए निश्चित रूप से घातक सिद्ध होगा. वैसे भी आज शक्ति संपन्न लोग सत्ता और बाजार के साथ ही हमारी सोच पर भी कब्ज़ा करते जा रहे हैं ऐसे में पोस्ट पेड़ और प्री पेड सिम कार्ड की तरह निकलने वाले समाचार, पत्रकार और पत्रकारिता का अमर्यादित आचरण, भारतीय लोकतंत्र को एक सार्थक और सक्षम नेतृत्व प्रदान करने से दिशाभ्रमित कर सकता है. उम्मीद है लोकतंत्र का चौथा खम्बा अपनी पूरी मजबूती, ईमानदारी के साथ अपने बल पर खड़ा रहकर अपने कार्य को स्वस्थता पूर्वक अंजाम देगा.

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