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कहने को तो हम यह कहावत अक्सर कहते हैं कि दूध का जला छाछ फूंककर पीता है पर अपने वास्तविक जीवन में मैंने ऐसे बहुत कम ही लोगों को देखा है जो इसे प्रयोगात्मक तौर पर अपनाते हों. खान-पान, रहन-सहन बिगड़ जाने के बाद जब बीमारियाँ घर कर जाती हैं और डॉक्टर के चक्कर काटने पड़ते हैं तो लोग कहते हैं कि अबकी ठीक हो जाऊं तो रोजाना योगाभ्यास करूँगा, पर ऐसा होता नहीं है. इसी प्रकार जब चुनावों में अपने लिए नेता चुनने की बारी आती है तो हम पिछली सारी बातों को भूलते जाते हैं. किसने क्या घोटाला किया, किसने कितना लूट मचाया, किसने धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर हमें लडवा दिया. फिर भी कहावत वही कि दूध का जला छाछ फूंककर पीता है.
इस गलती को आशावाद का नाम दिया जा सकता है या नहीं पर यह दर्शाता है कि हमलोग कितने आशावादी किस्म के हैं. केवल आशावादी ही नहीं बल्कि क्षमादानी में भी माहिर हैं. पर यह क्षमादान हम हमेशा नहीं करते, हमारा यह स्वभाव कुत्ते के स्वभाव से बिलकुल विपरीत है. कुत्ता जहाँ अपनों को पहचानता है और अजनबियों पर गुर्राता है वहीं हम अपनों पर गुर्राते हैं और दूसरों को क्षमादान करते रहते हैं.
सीमाओं पर पड़ोसी देश की बात हो तो हमारे राजनेता भी हमारी तरह ही व्यवहार करते हैं. कितना भी मुंह जल जाए, छाछ तो क्या बारबार वही गरम दूध पीकर मुंह जलाने से बाज नहीं आते हैं. मुझे तो लगता है कि दूध का जला वाली कहावत को पुस्तकों से हटा ही देना चाहिए.
चुनाव पास आ रहे हैं, हम फिर अपना मुंह जरुर जलाएंगे इसमें शायद ही किसी को संदेह होगा. अगर देश में हुए घोटालों की बात करें तो हमें अपनी इस मुंह जलाने की खासियत को समझने में आसानी होगी क्योंकि सबसे ज्यादा तकलीफ इसी ने दी है आज़ाद भारत को. बोफोर्स घोटाले जैसे अनेकों घोटाले बिना परिणाम के पुराने पड़ गए पर साढ़े नौ सौ करोड़ के चारा घोटाले का बाजार उछाल पर है जिसका कि पर्दाफाश करीब सत्रह वर्ष पहले हुआ था, समय काल के हिसाब से उस समय जिस बच्चे ने जन्म लिया होगा, आगामी लोकसभा चुनाव तक वह कानूनन बालिग़ हो चुका होगा और आम चुनावों में अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए एक नेता का चुनाव करेगा. इन सत्रह वर्षों में जिस रफ़्तार से आम जरुरत के सामानों के मूल्य बढे उसी रफ़्तार से घोटालों की रकम भी बढ़ी इस लिहाज से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आज उन साढ़े नौ सौ करोड़ का मूल्य कितना होता. इन सत्रह वर्षों में हमारी व्यवस्थायें एक नए और युवा वोटर को बस बदलाव की सुस्त गति का ही सन्देश दे सकीं जिसका श्रेय हम धीमी न्यायिक प्रक्रिया, रसूखदार लोगों की संलिप्तता को ही देते हैं ओअर अपनी बार-बार मुंह जलाने की आदत को छुपा ले जाते हैं क्योंकि हम यदि मुंह जलने के बाद छाछ फूंककर पीते तो घोटालों और उनकी रकम सीडब्ल्यूजी, टूजी और कोलगेट आदि के जरिये लाखों करोड़ में नहीं पहुँचती रहती. अब तो हमारी आदत हो गयी है बढ़ते शून्य को गिनने की, आखिर इस शून्य का आविष्कार भी तो हम भारतीयों ने ही किया था.
भ्रष्टाचार का पौधा हमारी उदासीनता की खाद से वृक्ष का रूप लेता जा रहा है पर हम अपनी भूमिका ही तय नहीं कर पा रहे हैं, हो सकता है इसकी वजह यह भी हो कि कहीं ना कहीं इस वृक्ष के साये में हमें भी छाया मिल रही है.
हाल ही में भारतीय राजनीति में बड़े नेता के रूप में परिभाषित लालू यादव, रशीद मसूद जैसे नेताओं को सजा के ऐलान एवं राहुल गाँधी द्वारा एक प्रेस कांफ्रेंस में दागी अध्यादेश की प्रति फाड़ देने के उपरान्त कुछ लोगों में इस चर्चा ने जोर पकड़ ली कि राजनीति में शुद्धिकरण की शुरुआत हो चुकी है. कई पत्र-पत्रिकाओं ने इस मुद्दे पर लोगों की रायशुमारी भी की. इन चर्चाओं का होना हमारे आशावादी होने का प्रमाण है और शायद मन को बहलाने के लिए ठीक भी है, पर क्या वास्तव में राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को अपने वोट से जितने वाले हम लोगों की तरफ से ऐसी कोई शुरुआत हो चुकी है. कहीं ये फिर से मुंह जलाने की तैयारी में तो नहीं हो रही है? इस प्रश्न का पूर्ण उत्तर तो लोकसभा चुनाव के उपरांत ही मिलेगा क्योंकि इस भ्रष्ट व्यवस्था के सिक्के के पहलू के एक तरफ यदि राजनीतिक दल और उनके दागी नेता हैं तो दूसरे हिस्से में अपने वोट से उनको जिताकर लोकसभा और विधानसभा तक पहुँचाने वाले हमलोग हैं. दाग और दागी यदि उन्हें पसंद है तो उनकी इस पसंद को परवान चढाने में हम भी पीछे नहीं हैं जिसके परिणाम स्वरुप आज 161 दागी सांसद और विभिन्न राज्यों में 1450 अपराधिक मामलों वाले विधायक हमने अपने प्रतिनिधि के रूप में चुन रखे हैं. आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनाओं में राजनीतिक दल और प्रत्याशी तो बहुत होंगे पर शुद्धिकरण की इस मुहीम में जनता जनार्दन को ही सजगता दिखानी होगी.
एक लालू यादव और रशीद मसूद जैसे कुछ नेताओं या कुछ अधिकारियों को जेल हो जाए तो तो क्या इससे आपको भारत की तस्वीर कुछ बदलती हुयी नजर आ रही है? भ्रष्टाचार हो या बलात्कार, आतंकवाद हो या नक्सलवाद, समस्याओं को उत्पन्न करने वाले लोग अगर बमुश्किल एक प्रतिशत ही तो होते हैं शेष निन्यानवे प्रतिशत क्या निर्दोष हैं? समस्याएं गिनने में तो हम माहिर हैं पर इन समस्याओं का कोई उचित समाधान प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी किस पर है क्योंकि समस्याओं का बने रहना दर्शाता है कि हमें इनकी आदत है और हम इनके बगैर रह नहीं सकते. वास्तव में समस्या हमारे अन्दर भी कहीं ना कहीं जरुर है. माननीय न्यायलय तो क़ानूनी किताबों, साक्ष्यों और वकीलों की जिरह पर अपने फैसले सुनाता है पर यदि पूर्ण न्याय करना है तो हमें स्वयं भी समस्याओं का समाधान बनना पड़ेगा अन्यथा बात नहीं बनेगी।
लिख ही रही हूँ तो कुछ और मुद्दों पर भी जाना चाहूंगी. राहुल गांधी जिस परिवार से आते हैं वह परिवार हर दृष्टि से भारत के सर्व शक्तिमान परिवारों में से एक परिवार है. सरकार से अपने हक की बात मनवाने के लिए बैनर, तख्तियां लेकर, भूख हड़ताल करके भी लोग हताश ही रहते हैं पर वे तो मात्र प्रेस कांफ्रेंस में प्रगट होकर एक कागज़ फाड़कर सरकार के निर्णय को भी तार-तार कर देने का माद्दा रखते हैं. अब ऐसे में आश्चर्य तब होता है जब वे अपनी रैलियों में किसानों, दलितों और मुसलमानों को संबोधित करते हुए उनसे ऐसे प्रश्नों को पूछते हैं जिनके उत्तर भी स्वयं उन्हीं जैसों के पास हैं. क्या उन्हें नहीं पता कि किसान हो या श्रमिक उसे राजनीति नहीं आती. अन्न उगाते समय किसान यह नहीं सोचता कि इसे कौन खायेगा अमीर या गरीब और अगर सोच लिया तो भूखे मरने की नौबत उसके सगे सम्बन्धियों और उस जैसे किसानों की नहीं बल्कि उनकी आएगी जिन्हें खेतों में हल चलाना नहीं आता. काम करते समय कोई भी मजदूर यह नहीं देखता कि वह मंदिर के लिए दीवार खड़ी कर रहा है या फिर मस्जिद के लिए क्योंकि उसकी गरीबी उसे मंदिर और मस्जिद में फर्क करने की इजाजत नहीं देती. अब यदि किसानों को उनकी मेहनत के मुताबिक पैसा नहीं मिल पा रहा है, दलित वर्ग आज भी शोषित ही हैं और उन्नति के लिए पलायन वेग की तीव्रता नहीं पकड़ पा रहे, मुसलमान अब भी पिछड़े हुए ही हैं तो जवाब कौन देगा, कुसूरवार कौन कहलायेगा, वे स्वयं या फिर राज करने वाले नेता. गरीबी, मंहगाई, कुपोषण, आत्महत्या, बलात्कार, दंगे यदि बढ़ रहे हैं तो इन प्रश्नों के उत्तर जनता देगी या उनका नेता? पर हैरत की बात ये है कि नेता अपनी रैलियों में इन प्रश्नों का जवाब ऐसे ही लोगों से पूछते हैं जो स्वयं उत्तर की तलाश में बार-बार अपना मुंह जला लेते हैं. उचित शिक्षा और चिकित्सा के अधिकार के लिए लोग तरसते हैं और कुछ लोग विदेशी पढ़ाई करते हैं और विदेशों में इलाज कराते हैं. बहन-बेटी शाम को घर सुरक्षित आ जाए तो घर के लोग सुकून की सांस लेते हैं पर वही कुछ लोग जेड श्रेणी की सुरक्षा घेरे में चलते हैं और फिर हमीं से पूछते हैं कि हमारी इस स्थिति के दोषी कौन हैं. तो दोषी कौन है, वह गरम दूध को बार-बार मुंह जला रहा है या फिर हम जो मुंह जल जाने के बाद भी फूंक मारकर पीने की आदत नहीं डाल रहे हैं?
एक-दो दिनों में घटित एक-दो वास्तविक घटनाएँ लिखकर बात खत्म करुँगी. रावण दहन की तैयारी कर रहे कुछ युवा चन्दा मांगने आये और जब चन्दा लेकर बाहर निकले तब उनमें से जो आवाजें आयीं उनका सार ये था कि मेरे दिए ग्यारह सौ एक रुपये दिए को एक सौ एक करके दिखाया जाए और बाकी पैसे से शाम को मूवी देखी जाए – तो क्या ऐसे ही करते रहेंगे हम रावण दहन? कुछ ऐसी ही सोच थी मेरे एक पारिवारिक मित्र की. बेटी की शादी जिस लड़के के साथ तय हुयी उसका सगाई के समय जो परिचय उन्होंने दिया वो यूँ था कि ये मेरे होने वाले दामाद हैं और बिजली विभाग में इंजीनियर हैं, तनख्वाह तो बहुत अच्छी नहीं है पर ऊपरी आमदनी बहुत बढ़िया है.
मुझे अपने आपको समझाने में देर नहीं लगी कि गरम दूध में ही तो स्वाद है मुंह जलता है तो जलने दो, अब तो यही स्वाद भाने लगा है. छाछ तो बनाने के पहले ही मलाई उतार ली जाती है फिर भला इस ज़माने में उसे कौन और क्यों पिएगा.
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