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ऐसी करनी कर चलो

WHO WE ARE
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पिछले सात आठ वर्षों से लगातार लोगों अनेकों लोगों के साथ योगाभ्यास करते एवं कराते हुए योग को और बारीकी से समझने के लिए निरंतर प्रयासरत हूँ, बस इसी कड़ी में कुछ अलग लिखने का मन बन गया. यह कोई आत्मकथा नहीं है बस यूँ ही कुछ है.

शुरुआत डरते डरते एक योग की कक्षा से हुयी, बस एक बीज ही तो बोया था मैंने अब आज उसी एक बीज से ना जाने कितने और बीज तैयार हो गए. जो वृक्ष बन गए आज लोगों को छाया प्रदान कर रहे हैं और जो अभी भी पल्लवित हो रहे हैं उनको अपनी निष्ठा के खाद और पानी से पल्लवित करने का प्रयास कर रही हूँ. सौभाग्य मानती हूँ अपना कि जो भी बीज लगाया मैंने, उस बीज को सँभालने के लिए कोई ना कोई धुनी माली भी मिलता चला गया. इस योग यात्रा में पड़ाव भी कई आये मगर मंजिल का स्वयं मुझे नहीं पता.

योग की नियमित कक्षाएं हों या फिर विशेष योग शिविरों का आयोजन, डेढ़ से दो घंटे के पूरे सत्र को यदि किसी भी योग की कक्षा में कोई जाकर देख ले तो उसे कोई अंतर महसूस नहीं होगा. अब तक कई नियमित योग की कक्षाएं योग साधकों की मेहनत से शुरू हो चुकीं हैं और विशेष योग शिविरों के आयोजनों का भी यही आलम है, कुछ तो उनमें से काफी भव्य एवं यादगार बन गए. लोगों से मिलना, उनके विचारों से रूबरू होना एक अच्छी विधा को लोगों तक पहुँचाना और व्यस्त से अति व्यस्ततम हो चले जीवन चर्या में जहाँ लोगों को अपनी ही सुध नहीं रही है वहाँ उनको केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक, वैचारिक स्वास्थ्य प्रदान करने के साथ ही उन्हें अपने पारिवारिक दायित्वों के प्रति जागरूक करने के साथ साथ समाज एवं देश के प्रति जागरूक करना, बस यही छोटा सा उद्देश्य है इन योग की कक्षाओं और शिविरों का.
जिन लोगों को ये पता है कि मैंने इन कार्यों के लिए अपनी लगी लगाई नौकरी छोड़ दी या फिर जिन्हें नहीं भी पता है वे लोग भी अक्सर दुविधा में रहते हैं और यह प्रश्न मुझसे सकुचाते हुए कभी कभी मासूमियत के साथ पूछ भी बैठते हैं कि आप कितना इस सबसे कमा लेतीं हैं या फिर आपकी तनख्वाह कितनी है, आखिर आप इतनी उर्जा और समय लगा रहीं हैं “कुछ” तो अवश्य मिलता ही होगा. बिना किसी नागे के, दो छोटे बच्चों और पति के साथ बढ़िया तालमेल बिठाते हुए, घर को सँभालते हुए साल के तीन सौ पैंसठ दिन इतना समय देना, पेट्रोल के दाम कहाँ पहुँच गए बिना इसकी परवाह किये विशेष शिविरों के आयोजनों का लगातार बढ़ता ग्राफ, ऐसे में मन में इस “कुछ” के लिए प्रश्न उठने स्वाभाविक ही हैं. अब ऐसे अनुत्तर करने वाले प्रश्नों पर पहले मैं असहज हो जाती थी अब मुस्कुरा कर रह जाती हूँ क्योंकि समझ नहीं आता कि क्या जवाब दूं. अब ये तो कह नहीं सकती कि घर के कामों को करने वाली अपनी महरी को मैंने निकाल दिया है, इसलिए नहीं कि झाड़ू, पोंछा, बर्तन करने में मुझे आनंद आ रहा है, इसलिए भी नहीं कि आर्थिक तंगी हो रही थी बल्कि शायद इसलिए कि जो पैसे बच जायेंगे उनसे इन शिविरों के आयोजन में थोड़ी और मदद मिलेगी, कुछ और लोगों तक स्वस्थ मन और स्वस्थ तन रखने की इस परंपरा को पहुंचा पाऊँगी.

पर शायद प्रश्नकर्ता मेरी भावनाओं को समझ नहीं सकेंगे और यही सोचेंगे कि एक स्नातक और कंप्यूटर प्रोग्रामर, कहीं उसके दिमागी कंप्यूटर में ही तो वायरस नहीं घुस गया है. दरअसल गलती उनकी भी नहीं है क्योंकि आज की पढ़ाई का पैमाना ही यही निर्धारित हो चुका है कि पढ़ाई के पश्चात नौकरी कैसी मिली सरकारी या प्राइवेट या अपना स्वयं का व्यापार शुरू कर दिया. सरकारी है तो वेतनमान क्या है, प्राइवेट है तो पॅकेज कितने का मिला दो-चार से लेकर दस बारह लाख तक, शायद यही रेट चल रहा है आजकल. पन्द्रह वीस वर्षों तक लगातार अध्ययन का रेट है यह, जितना ज्यादा कमा सको उतने ज्यादा सफल कहलाओगे नहीं तो समाज फिसड्डी घोषित कर देगा. व्यापार करना भी सबके वश में नहीं, सारी की सारी पूँजी तो कमबख्त पढ़ाई में ही खर्च हो जाती है. शिक्षा के अधिकार का नारा भले ही कितना बुलंद कर दिया गया हो पर उस तक अपनी पहुँच बनाने के लिए भी तो मध्यम वर्गीय परिवार अपनी सारी जमा पूँजी खर्च कर बैठता है. अब ऐसे माहौल और सोच के मध्य मेरे कार्य को संभवतः सभी समझ भी नहीं पाएंगे क्योंकि मैं कोई सन्यासिनी या भिक्षु भी तो नहीं हूँ. अधिकांश परिवारों में तो आजकल डीआईजी (डबल इनकम ग्रुप) की ही संकल्पना है, क्या करें मंहगाई जो इतनी बढ़ गयी है. सब्जी वाले जिन सब्जियों के दाम पहले किलो में बताते थे अब पाव में बताते हैं, हो सकता है कुछ दिनों में आलू प्याज सब प्रति पीस के हिसाब से मिलने लगें. हो सकता है मंहगाई को देखते हुए सब्जी लेने निकलें तो पहले उसका बीमा ही करना पड़ जाए. रसोई गैस के दाम ने भी बहुत छकाया, एक दिन मेरे बेटे ने भोलेपन से पूछ ही लिया कि मम्मा क्या ठंडा खाना नहीं बन सकता, गैस की जरुरत नहीं पड़ेगी. शायद इसीलिए योग शिविरों से “कुछ” मिलने का प्रश्न आते ही मैं बरबस मुस्कुरा पड़ती हूँ और मेरी हंसी से लोगों को मुझे किसी उम्दा पॅकेज मिलते रहने की संभावना नजर आती ही होगी तो इसमें किसी का क्या दोष.

आखिर मेहनत भी तो खूब पड़ती है, बचपन में ब्रह्म मुहूर्त के बारे में पुस्तकों में पढ़ा करती थी लेकिन संयुक्त परिवार में सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक घर के कामों का अंतहीन सिलसिला समाप्त ही नहीं होता था और शाम ढलने के साथ ही रात्रि भोजन की कवायद शुरू, लड़की थी इसलिए रसोई में माँ का हाथ बंटाना मेरा धर्म भी था और माँ की मदद करके मुझे अच्छा भी लगता था साथ ही मन में कहीं बिठा भी दिया गया था, बड़ी होकर ब्याह के बाद ससुराल जाना है सब सीख लो अभी से नहीं तो ताने पड़ेंगे. सो पढ़ने के लिए उचित समय तभी मिल पता था जब सब सो रहे हों. देर रात की पढई के बाद ब्रह्म मुहूर्त, ना बाबा ना. नींद पूरी ना हो तो आई क्यू लेवल कम हो जाता है. अब ऐसे में ब्रह्म मुहूर्त तो किताब में लिखे दो शब्दों के समान ही थे मेरे लिए.

पढ़ भी ली, विवाह भी हो गया, नौकरी भी कर ली और अब तो पिछले सात-आठ वर्षों से उसी ब्रह्म मुहूर्त से दोस्ती हो गयी है जिसे जी भरकर जी भी रही हूँ क्योंकि अब तो मेरे लिए सुबह की शुरुआत साढ़े तीन से चार बजे के बीच हो ही जाती है. सब सो रहे होते हैं मैं प्रकृति से बातें कर रही होती हूँ. योग शिविर यदि कहीं सुदूर गाँव में लगा है तब तो तीन बजे ही उठना पड़ता है क्योंकि बच्चों के लिए नाश्ते आदि की व्यवस्था करके जाना होता है. यह सब किसी सन्यासिनी वाली साधना या तप के लिए नहीं बल्कि अब तो दिनचर्या ही ऐसी बन चुकी है. कभी सोने में विलम्ब भी हो जाये तो प्रातः ही चिड़ियों की चहचहाहट ऐसे होने लगती है जैसे शिकायत कर रहीं हों कि क्या आज नाराज तो नहीं मैं.

आसपास चल रहीं नियमित योग की कक्षाएं हों या फिर दूर दराज इलाकों में लगने वाले विशेष योग शिविरों का आयोजन सबका समय बिलकुल नियत है प्रातः पाँच बजे. मौसम के हिसाब से सूर्योदय का समय बदलता रहता है और मुर्गा भी अपनी बांग को उसी अनुसार आगे पीछे कर लेता है लेकिन मुझे जहाँ तक याद है इन वर्षों में इन सबका कोई फर्क नहीं पड़ा और प्रातः पाँच का मतलब पाँच ही चल रहा है. मुझे आज भी याद है कि समय की इतनी पाबंद तो मैं अपनी नौकरी में भी नहीं थी, ऑफिस का समय नौ बजे था और मैं पाँच दस मिनट तो लेट हो ही जाती थी. पता नहीं अन्जाने में या जानबूझकर और काम शुरू करते करते तो साढ़े नौ बज जाते थे. पर अब तो पाँच बजे सह यात्रियों जिन्हें आप साधक कह सकते हैं, के साथ योग यात्रा की शुरुआत हो चुकी होती है.

सचमुच बहुत “कुछ” दिया इन सबने जिसका कोई मोल नहीं है. इस योग ने जीवन को बचाने के लिए किसी मेडिकल के डिग्री की आवश्यकता नहीं महसूस होने दी क्योंकि जटिल बिमारियों से ग्रसित जो लोग आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था से नाउम्मीदी में आ गए थे आज स्वस्थ जीवन का आनंद उठा पा रहे हैं. अब ऐसा लगता है कि योग की इस लंबी यात्रा में ना जाने कितने पड़ाव होंगे, मैं खुशनसीब हूँ कि उन पड़ावों को मैंने कभी मंजिल नहीं बनने दिया अन्यथा यात्रा वहीं समाप्त हो जाती.

चलते चलते आज के अखबार की एक सुर्खी – कोयला आवंटन घोटाले की प्रगति रपट को लेकर उच्चतम न्यायलय में सीबीआई द्वारा दाखिल हलफनामे के बाद अपने और कानून मंत्री के विपक्ष द्वारा इस्तीफे की मांग को प्रधानमंत्री ने ख़ारिज कर दिया और कहा कि “पूरी दुनिया हम पर हँस रही है”. प्रधानमंत्री जी आपसे निवेदन है कि आप बिना “कुछ” की आशा में एक बार ही सही “कुछ” तो करें, जिससे हम हँसी के पात्र ना बनें. देशवासी भी हँसना चाहते हैं किसी के ऊपर नहीं बल्कि वे हँसी-खुशी वाली हँसी चाहते हैं. यह सत्य है कि दुनिया भले ही हँस रही हो परन्तु आज हम देशवासी ना रो पा रहे हैं और ना ही हँस पा रहे हैं बस अलग अलग घोटालों की रकम सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ होते जा रहे हैं.

अंत में कबीर का एक दोहा और बात खत्म, “कबीरा जब हम पैदा हुए जग हँसे हम रोये, ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये”

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