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तो क्या मोदी रचेंगे इतिहास

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किसी भी देश का इतिहास उस देश की राजनीति का मेरुदंड होता है. इतिहास जितना सबल होगा उसका सीधा अर्थ होगा कि देश की राजनीति उतनी ही सबल होगी. हमारे देश का पौराणिक और प्राचीन कालीन इतिहास अत्यंत गौरवपूर्ण रहा है पर अपनी कुछ कमजोरियों के कारण हमें अंग्रेजों की गुलामी का दंश लंबे समय तक झेलना पड़ा. शायद इसी गुलामी के कारण इतिहास की घटनाओं में जो उठा-पटक हुयी उसने आज की राजनीति के स्तर को स्तरहीन बना दिया है. आज जैसे ही चुनावों की चर्चाएँ आम होने लगतीं हैं वैसे ही राजनीति का मेरुदंड कभी आगे की ओर तो कभी पीछे की ओर लचक खाने लगती है और धीरे धीरे इसी लचक ने भारतीय राजनीति में कुबड़ापन ला दिया है.


डॉक्टर परमानन्द सिंह की लिखी पुस्तक “इतिहास दर्शन” पढ़ रही थी, लिखा था कि इतिहासकार किसी भी इतिहास के अतीत और वर्तमान के बीच सेतु होता है, वही सेतु समाज का प्रकाश-स्तंभ भी है जो समाज को अतीत का अवलोकन कराकर वर्तमान को प्रशिक्षित करके सुखद और सुसम्पन्न भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है. उसमें अतीत के सन्दर्भ में वर्तमान को समझने की अद्भुत क्षमता होती है. एक साहित्यकार की भांति वह भी समसामयिक समाज का प्रतिनिधि तथा काल एवं परिस्थितियों की अनिवार्यता का उत्पत्तिस्थल होता है. वह समसामयिक मूल्यों तथा अपने युग के दृष्टिकोण से अतीत का अवलोकन एवं उसकी व्याख्या करता है जिसका उद्देश्य होता है – समसामयिक सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति.


यद्यपि मैं अपने आपको इस योग्य नहीं पाती कि मैं किसी भी इतिहासकार, इतिहासकारों या इतिहास दर्शन जैसी पुस्तकों के ऊपर  टिप्पणीं या शब्द तो क्या एक अक्षर भी लिख सकूं परन्तु जो थोड़ा बहुत मैं समझ पाती हूँ उससे मुझे लगता है कि वास्तविक इतिहासकार वे नहीं है जिन्होंने किसी ऐतिहासिक घटना को अपनी लेखनी से पुस्तक के पन्नों में उकेर दिया हो बल्कि वास्तविक इतिहासकार तो वही हैं जिन्होंने अपने महान कृत्यों से घटनाओं को ऐतिहासिक बना डाला. ऐसे इतिहासकारों का शिल्प एक जुझारू और रचनाशील कलाकार के सामान ही है जो अपनी दूर दृष्टि, उत्साह, अनुभव, विवेक और पौरुष से जीवन में ऐतिहासिक कही जाने वाली एक से बढ़कर एक साहसिक घटनाओं को अंजाम ही नहीं देता वरन उनके आधार पर भविष्य में अपने कर्मों के माध्यम से इतिहास को रच देने वालों का मार्गदर्शन भी प्रदान करता है.


ऐसे इतिहासकार को उसे अपने वर्तमान समय में बहुत कुछ खोना भी पड़ता है जिसके उदाहरण स्वरुप स्वतंत्रता आन्दोलन के अनगिनत सिपाहियों का ब्यौरा थोड़ा ढूँढने पर शायद हम पा सकते है. घटित हो चुकी घटनाओं को कलमबद्ध करने वाले लोग कभी तो सत्यता और घटनाओं की प्रमाणिकता के आधार पर भविष्य के निर्माण का आधार तैयार करते हैं पर कभी कभी वे कुछ राजनीतिक कारणों से पूर्वाग्रहों से ग्रसित भी हो जाते हैं और उनका यही पूर्वाग्रह घटनाओं के कई तथ्यों को तोड़-मरोडकर पेश करने में उनको प्रेरित करता है. संभवतः लार्ड एक्टन ने ऐसी ही परिस्थितियों से बचने के लिए लिखा है कि इतिहास को उदासीनता और विवाद से बचने के लिए आवश्यक है कि उसका आधार व्यक्तिगत न होकर प्रामाणिक तथ्य हो.


ऐतिहासिक घटनाओं को कलमबद्ध करने वाला व्यक्ति मात्र एक लेखक ही नहीं होता है बल्कि उसके शब्द एक युग के शब्द होते हैं, उसकी भावनाएं उस युग की भावनाओं को प्रदर्शित करते हैं और उसकी वाणी उस युग की वाणी होती है. अतः आज जो कुछ भी लिखा जा रहा है हर लेखक या लेखिका को पूरे दायित्व के साथ यह ध्यान रखना होगा कि उसकी लिखी हुयी पंक्तियाँ आने वाले कल में हमारी पीढ़ियों को भारत की आज़ादी के साठ पैंसठ वर्षों बाद की स्थितियों के बारे में बतलाएंगी. इसलिए किसी भी रचनाकार को अपनी परिस्थिति और भूमिका भी उसी के अनुरूप बनानी होगी और अपने शब्दों की विश्वसनीयता, महत्ता और गंभीरता को पूरी प्रमाणिकता के साथ बनाये रखना होगा  ताकि आने वाला युग घटनाओं और तथ्यों को भली भांति सही अर्थों और सन्दर्भों में जान सके जिससे देश में पारिवारिक, सांप्रदायिक एवं जातीय तथा राष्ट्रीय एकता की मजबूत नींव कभी खोखली नहीं हो सके. यह एक ऐसा कदम होगा जिससे नयी सदी के स्वर्णिम युग की भूमिका तैयार की जा सकती है.


बात योग गुरु स्वामी रामदेव की हो या फिर अन्ना हजारे जैसे सामाजिक कार्यकर्त्ता की, विशुद्ध राजनीतिक कारणों से उन पर भी आरोप मढ़ दिए जाते हैं, विदेशी किराना को जायज ठहरा दिया जाता है, सत्ता के मद में चूर नेता अमर्यादित बयान दे डालते हैं, ये सब भी तो पन्नों में दर्ज हो रहे हैं. कल को यही सब इतिहास के पन्नों की शोभा बढ़ाएंगे, फिर कौन सही था और कौन गलत बताने वाला कोई नहीं होगा. आज हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है, बलात्कार की घटनाओं में सुनामी आ चुकी है, काले धन का कारोबार बुलंदियां छू रहा है, विकास की रफ़्तार सुस्त पड़ चुकी है और मंहगाई सुरसा की तरह मुंह फाड़ती चली जा रही है. चाहे राजनेता हों या फिर प्रशासनिक अधिकारी हों सब हर मामले से बयानों के नाम पर खरगोश की चाल अपनाते हैं तो कार्यवाही के नाम पर उनकी चाल देखकर कछुआ शर्माने लगता है. दर्ज यह भी हो रहा है पन्नों में. मुश्किलों से लड़ने की क्षमता नहीं हो तो नए आयोग गठित कर दिए जाते हैं, जांच कमिटी गठित कर दी जाती है, बाद में कोई इतिहास पढ़ेगा तो यही सोचेगा कि सरकार कितनी मुश्किलों और मेहनतकशी के साथ समस्याओं की चुनौतियों को ललकार रही थी.


आज हालात ये हैं कि सर्व शक्तिमान हमारी सरकार आम आदमी की उम्मीदों पर वज्रपात कर रही है, जनता आक्रोशित हो सड़कों पर निकल रही है पर साथ ही व्यवस्था की गंदगी में नाकाबिलियत के कूड़े के ढेर का अम्बार बढ़ता और सड़ता चला जा रहा है, ऐसे में भारत के लोग देश के एक सबसे योग्य व्यक्ति को ढूंढ रहे हैं जो आवश्यक नहीं कि किसी सत्ता पक्ष या विपक्ष या किसी बड़े या छोटे या क्षेत्रीय राजनीतिक दल का ही हो. आवश्यक नहीं कि वह किसी बड़े खानदानी नेताओं के घराने का हो या किसी विशेष राज्य का ही हो, किसान का बेटा हो या कारोबारी का. तलाश है तो सवा सौ करोड़ लोगों में से एक ऐसे व्यक्ति की जो देश को संभाल सके. वह महिला हो या पुरुष, फर्क नहीं पड़ता है, वह गुजरात का हो या बिहार का फर्क नहीं पड़ता है, वह कांग्रेस का हो या भाजपा का, फर्क नहीं पड़ता है. फर्क पड़ेगा तब जब इतनी मेहनत के बाद भी हम अपने चुनाव को सही नहीं ठहरा पायेंगे, आने वाला युग जब इस इतिहास को पढ़ेगा तो आश्चर्य करेगा कि सवा सौ करोड़ लोगों में हमारे पूर्वज एक योग्य व्यक्ति को नहीं ढूंढ पा रहे थे. कौन सोचेगा इसके बारे में, क्या किसी को कोई फर्क पड़ता है. किसी को फर्क पड़े या ना पड़े पर देश को इसकी कीमत चुकानी पड़ जायेगी यदि हमने सोचा नहीं तो.


वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव जब होंगे तब होंगे पर अख़बार के पन्नों से लेकर टेलीविजन के स्क्रीन तक, गली मोहल्लों से लेकर सड़कों तक, चाय की दुकानों से लेकर शोपिंग माल तक, फेसबुक से लेकर ट्विटर तक सर्वत्र सर्वाधिक उपयुक्त नेता के नाम की खोज शुरू हो चुकी है. राजनीतिक दल भले ही इसे राजनीति का नाम दें और अपनी राजनीति से बाज ना आयें लेकिन देश का आम आदमी अबकी बार राजनीति नहीं बल्कि राष्ट्र को बचाने की नीति के मूड में है, हमारे राजनेता अगर इस बात को नहीं समझेंगे तो शायद इस बार उनको मुंह की खानी पड़ जायेगी. इस खोज में फिलहाल मोदी ही एक विकल्प के तौर पर मिल पा रहे हैं जो ना तो बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की बात कर रहे हैं और ना तो आरक्षित और सामान्य वर्ग की बात कर रहे हैं. वे सिर्फ देश की बातें कर रहे हैं. पर गोधरा कांड में नरेंद्र मोदी की भूमिका को जिस प्रकार से सांप्रदायिकता और पंथनिरपेक्षता जैसी शब्दावली से नवाजा जा रहा है उसे इतिहास की पंक्तियों के व्याकरण को बिगाड़ने और अशुद्ध करने की कोशिश का नाम दिया जाना चाहिए.


कुटिल राजनीतिज्ञों ने तो यह ठान लिया है कि वे देशवासियों को राजनीति के ऐसे चौराहे पर ले जाकर खड़ा कर देंगे जहाँ से उन्हें कभी कोई रास्ता ही नहीं सूझे शायद इसीलिए कभी मोदी बनाम राहुल शुरू किया जाता है तो कभी मोदी बनाम नीतिश शुरू हो जाता है और मोदी बनाम सुषमा. गौर करने योग्य इसमें यही है कि इन सब नामों में एक नाम बार-बार आ रहा है और वो है नरेंद्र मोदी. अर्थात मोदी ही फिलहाल एक अकेले ऐसे योद्धा हैं जिन्हें यूपीए और राजग की लड़ाई में भी फ्रंट पर रखा गया है, राजग की अपनी लड़ाई में भी उन्हें ही फ्रंट पर रखा जा रहा है और भाजपा की अंदरूनी लड़ाई में भी उन्हें ही फ्रंट पर लाया जा रहा है. इसका मतलब तो यही है कि मोदी को हर दिशा में एक लड़ाई लड़नी पड़ेगी क्योंकि संत समाज को भी वे स्वीकार्य हो चुके हैं. यही नहीं गुजरात में लगातार तीन चुनावों को जीतकर हर वर्ग में अपनी स्वीकार्यता साबित भी कर चुके हैं और गुजरात विकास के माडल का लोहा भी मनवा चुके हैं.


तो क्या यह उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय इतिहास के पन्नों में अगले वर्ष एक और ऐतिहासिक अध्याय जुड़ने वाला है जिसमें मोदी एक इतिहासकार बनकर उभरेंगे उत्तर हाँ में ही है क्योंकि देश की राजनीति ने तो देशवासियों को एक विकट चौराहे पर खड़ा कर दिया है जहाँ हीन-दीन बने रहकर भीख के तौर पर चलायी जा रही योजनाओं से मिलने वाले राशन और रिजर्वेशन जैसे कलंक से हम बार बार कलंकित हो रहे हैं.

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