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अंतहीन दौड़

WHO WE ARE
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हमारे पूरे जीवन काल की पुस्तक के प्रथम और अंतिम अध्याय की रचना स्वयं हमारे रचनाकार अर्थात ईश्वर ने रची है. इन दो अध्यायों में से प्रथम अध्याय तो है हमारा इस जीवन में आना अर्थात हमारा जन्म और अंतिम अध्याय है इस जीवन से जाना अर्थात मृत्यु. दूसरे शब्दों में जन्म का अर्थ हुआ उस दुनिया से वियोग जहाँ जन्म से पूर्व हम सब थे इसलिए मृत्यु के पश्चात जब वापस हम जाते हैं तो उसे योग कहा जा सकता हैं. वियोग इसलिए भी कि माँ की कोख से निकलकर हम बाहरी दुनिया में अपने पग रखते हैं और योग इसलिए भी कि जीवन कि यात्रा को पूर्ण करके अंततः फिर वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से हम चले थे. इस वियोग एवं योग के बीच के अध्याय के सभी पन्ने जन्म के समय कोरे कागजों की तरह होते हैं जिन्हें हमें अपने कर्मों से पृष्ठ दर पृष्ठ भरना होता है जिसे प्रयोग के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है. इन कोरे कागजों को भरने के लिए अर्थात प्रयोग करने के लिए भी उस अदृश्य ईश्वरीय शक्ति ने हम सबमें अपार प्रतिभाएं भर रखीं हैं. पर हाँ ये बात अलग है कि ये प्रतिभाएं हम सबमें अलग-अलग होतीं हैं.


इन प्रतिभाओं में से कुछ तो हमें जन्म के समय विरासत में मिलतीं हैं तो कुछ प्रतिभाओं को हम समाज में अपने दायित्वों को निभाने के दौरान आये अनेकों अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिओं से भी सीखते हैं. प्रतिभाओं का परिमाण, अनुपात एवं प्रकार अलग अलग लोगों में भिन्न-भिन्न हो सकता हैं. इसीलिए यह आवश्यक नहीं कि एक चिकित्सक की संतान भी चिकित्सक ही बने और इंजीनियर के घर इंजीनियर ही पैदा हो. सदाचारी की संतान सदाचारी ही बनेगा या फिर दुराचारी की संतान हमेशा दुराचारी और व्यभिचारी ही होगा. यह भी जरूरी नहीं है कि अभिनेता की संतान राजनेता और राजनेता की संतान अभिनेता नहीं बन सकतीं. कहने का तात्पर्य यही है कि जो भी बच्चा जन्म लेता है उसमें कोई ना कोई विशेषता होती ही है यह प्रकृति का अकाट्य और ईश्वरीय नियम है. पेड़ पौधों और वनस्पतियों में भी यही नियम लागू होता है. घास फूस से लेकर बड़े बड़े वृक्ष सब अपने आप में अलग अलग गुणवत्ता लिए हुए होते हैं जहाँ आकार प्रकार, छोटा बड़ा कुछ भी मायने नहीं रखता, मायने रखता है तो उसमें निहित गुणों का भण्डार.


घर के लॉन से शुरू होकर जंगलों तक ऐसी तमाम जड़ी बूटियों की भरमार है जिनके बारे में आज चंद लोग ही जानकारी रखते हैं और इनका विभिन्न तरीकों से प्रयोग बिमारियों में ऐसे चमत्कारिक प्रभाव छोड़ जाता है जिन्हें आज की आधुनिक चिकित्सा पद्धति की वकालत करने वाले समझ ही नहीं पायेंगे. इन जड़ी बूटियों की महत्ता नहीं जानने वालों के लिए लॉन में लगी घास मात्र घास है लेकिन एक वैद्य जिसके पास सरकार द्वारा निर्धारित डिग्री भले ही नहीं उसके लिए वह जीवन दायिनी है जिसका काढ़ा बनाकर स्वास्थ्य और पैसा दोनों ही आसानी से लुटने से बचाया जा सकता है. कुछ ऐसा ही बच्चों के साथ और उनके अंदर छुपी हुयी प्रतिभाओं के साथ भी है जिसे समझने और समझकर उसे निखारने वाला मिल जाये तो बच्चे की वही विशेषता एक दिन पूरे विश्व में ना सिर्फ उसकी एक पहचान बना देती है बल्कि देश का गौरव भी बढ़ा सकती है बस उसे तराशकर निखारने वाला एक समर्थ गुरु या फिर मार्गदर्शक उसे मिल जाए और उसके लिए किसी विद्यालय की डिग्री फिर छोटी पड़ जाती है.


व्यक्ति कोई भी हो, किसी भी जाति का हो, किसी भी धर्म का हो, किसी भी क्षेत्र का हो, हर व्यक्ति में कोई ना कोई प्रतिभा जरूर होती है और यह सदैव आवश्यक नहीं कि ऐसी प्रतिभाएं केवल स्कूली पाठ्यक्रमों को रट कर ही विकसित होतीं हैं बल्कि स्कूल के पाठ्यक्रम तो बच्चे की मूलभूत प्रतिभाओं को उतना विकसित नहीं करते अलबत्ता आज के स्कूल, शिक्षा के उद्देश्य और उनकी दिशा ऐसी हो गयीं हैं कि विषयों को पढते पढते बच्चे के अंदर की स्वनिर्मित प्राकृतिक प्रतिभा दफ़न हो रही है और माता-पिता से लेकर शिक्षकों तक सभी जुट जाते हैं बच्चे को बस एक ही जुगत सिखाने में, उसके अंदर एक ही प्रतिभा का सुई घोंपने ने और वह है रोजी रोटी और धन कमाने की प्रतिभा.


शायद इसीलिए मुझे वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से उलझन महसूस होती है. कल्पना कीजिये एक बच्चा मॉन्टेसरी, नर्सरी, केजी से लेकर कक्षा बारहवीं तक अर्थात पन्द्रह वर्षों से लगातार एक मशीन की तरह पढ़े चला जा रहा है जिसे कोई बताने वाला ही नहीं है कि जो शिक्षा वह ग्रहण कर रहा है उसका औचित्य क्या है. अचानक ही बारहवीं कक्षा में आते ही बच्चा अपने आपको एक चौराहे पर खड़ा पाता है. मेडिकल और इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए परीक्षाओं की बाढ़ में उसे फेंक दिया जाता है जहाँ से उसे कुशल तैराक की तरह तैर कर बाहर निकलकर अपने आप को साबित करना होता है और फिर शुरू होती है कैरियर को बनाने के लिए एक कभी ना खत्म होने वाली संघर्ष की कहानी. ऐसे में बच्चे की मौलिक प्रतिभा जो पल्लवित होनी चाहिए थी वह पलायित हो चुकी होती है. कुछेक अपवादों को छोड़कर लगभग सभी युवा, शिक्षा की इसी अव्यवस्था से प्रताड़ित हो रहे हैं.


यद्यपि मैं ना तो कोई सर्वप्रचलित शिक्षिका हूँ और ना ही इतिहास की विद्यार्थिनी अलबत्ता अपने विद्यार्थिनी जीवन एवं तत्पश्चात लोगों को योग, आयुर्वेद और स्वदेशी की शिक्षा देते हुए मैं कई विस्मयकारी अनुभवों से गुजर चुकी हूँ. अपने योग की कक्षाओं और योग साधकों से मिले अनुभवों को यदि लिखने लगी तो शायद कुछ दिनों का समय लग ही जायेगा फिर भी इतना जरूर लिखना चाहूंगी कि अब तक जिन्हें मैं इतिहासकार समझती थी वे तो वास्तव में इतिहास की घटित हो चुकी घटनाओं को केवल कलमबद्ध करने वाले लोग थे जिन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को अंजाम देने वाले ऐतिहासिक पात्रों को इतिहास के पन्नों में बस समेट दिया. पर अनुभवों से ऐसा लगता है कि सच्चे इतिहासकार तो इतिहास के वही पात्र हैं जिनके कारण ऐतिहासिक घटनाएँ घटित हुईं.


इसलिए मेरा अनुभव तो यही कहता है कि हो सकता है कि कोई अच्छा बोल सकता हो तो कोई अच्छा सुन सकता हो. कोई अच्छा लिख सकता हो तो कोई अच्छा पढ़ सकता हो. इसी तरह कोई अच्छा देख सकता है तो कोई अच्छा दिखा भी सकता है और शायद दिख भी सकता है. कोई अच्छा याद रख सकता है तो कोई अच्छा याद करवा सकता है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि कोई व्यक्ति इन सारे गुणों या इनमें से किसी एक गुण से भरपूर होकर ही कुछ अच्छा कर सकता है. हर व्यक्ति बहुत कुछ अच्छा कर सकता है और अपना प्रभाव समाज, देश और दुनिया पर छोड़ सकता है बशर्ते उसे ऐसा करने का एक सही अवसर एवं मार्गदर्शन दिया जा सके शायद तभी हमारी “शिक्षा व्यवस्था” को एक नया मुकाम हासिल हो सकेगा. अन्यथा चंद प्रश्नों के सही उत्तर देकर एक अदद नौकरी जरूर मिल जायेगी लेकिन जिंदगी के प्रश्न अनुत्तरित रह जायेंगे और “अंतहीन दौड़” कभी समाप्त नहीं होगी

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