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देश की राजधानी दिल्ली में हुए गैंग रेप के बेहद नृशंस और अमानवीय अपराध में एक नाबालिग के शामिल होने जैसी शर्मनाक घटना के मद्देनजर जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति की सिफारिशों के अनुसार स्कूली पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा को शामिल किया जाना चाहिए ताकि बच्चों को सही-गलत जैसे व्यवहार और आपसी संबंधों के विषय में पता चले. वर्मा समिति की सिफारिशों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए केन्द्रीय मानव संसाधन और विकास मंत्री एम.एल. पल्लम राजू का भी कहना है कि इन सभी सिफारिशों पर विचार-विमर्श शुरू किया जा चुका है और जल्द ही कुछ हिस्सों को पाठ्यक्रम में शामिल कर दिया जाएगा.
आश्चर्य है उच्च पदों पर बैठे लोगों की सोच पर, काश यौन शिक्षा की वकालत करने वाले लोग यह समझ सकते कि शिक्षा का अधिकार, सर्व शिक्षा अभियान आदि जैसी कई पहलों और प्रगति के बावजूद भी भारत में विश्व की 35 फ़ीसदी निरक्षर आबादी है और उसकी 68 प्रतिशत साक्षरता दर 84 प्रतिशत से काफी पीछे है. इसलिए वकालत शायद यौन शिक्षा की नहीं बल्कि मात्र शिक्षा की ही करने की ज्यादा थी.
हाँ शिक्षा कैसी हो, इसका प्रयोजन क्या हो और मानव जीवन के मूल उद्देश्य से इसका कैसे, क्या और किस प्रकार का संबंध हो, यह एक सम्पूर्ण दर्शन है और साथ ही शिक्षा दर्शन का हमेशा से एक अनिवार्य प्रश्न भी है. यदि केवल आत्मकल्याण के बारे में सोचें तो वेदानुसार इसके दो रास्ते होते हैं. पहला रास्ता है ज्ञान का जो कि विचार प्रधान है और दूसरा रास्ता है भक्ति का जो कि प्रेम प्रधान है. देखा जाये तो रास्ते दोनों ही सरल और उत्तम हैं, चाहें हम ज्ञान अर्जन कर आत्मकल्याण का रास्ता ढूंढ लें या फिर भक्ति में ही लीन हो जाएँ. यदि केवल आत्म-कल्याण ही करना हो तब केवल भक्ति से काम चल सकता है लेकिन यदि आत्म के साथ ही जगत कल्याण की भावना भी रखते हों तो ज्ञान से परिपूर्ण भक्ति की जरुरत होगी.
भारतीय शिक्षा दर्शन का आध्यात्मिक धरातल विनय, नियम, आश्रम, मर्यादा आदि मूल्यों पर आधारित रहाहै जहाँ अब तक जीवन दर्शन और शिक्षा दर्शन दोनों ही एक दूसरे से प्रतिबिंबित होते रहे हैं. पर वर्तमान में जीवनचर्या के साथ शिक्षा की गुणात्मकता में निरंतर गिरावट आने से हमें आज समाज में चारित्रिक पतन जैसी समस्याओं से जबरदस्त तरीके से जूझना पड़ रहा है क्योंकि फिलहाल हम सब शिक्षा का एक ही अर्थ जानते हैं और वो है रोजी रोटी का साधन. हमारी शिक्षा पद्धति में बढ़िया आचरण जैसा शब्द या उस जैसा भाव कहीं भी परिलक्षित नहीं होता है. यदि केवल इसी प्रकार की शिक्षा की बात करें तो भारत में शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो लागू हो ही चुका है और इस अधिनियम के तहत अब वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए शिक्षा एक मौलिक अधिकार है. इस अधिनियम के तहत बच्चों को गुणवत्तापूर्ण और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान है उद्देश्य यह है कि बच्चों को कौशल और मूल्यों से लैस करके उन्हें भारत का प्रबुद्ध नागरिक बनाया जा सके.
हम सभी इस बात को जानते, मानते और समझते हैं कि बच्चे की प्रारंभिक पाठशाला, उसकी प्रारंभिक पढ़ाई उसके स्वयं के घर से शुरू होती है और उसके प्रथम गुरु उसके माता और पिता ही होते हैं. बल्कि बच्चे के चरित्र के निर्माण की प्रक्रिया तो स्त्री के गर्भ धारण से ही शुरू हो जाती है और जन्म के पश्चात घर का पूरा का पूरा वातावरण, एक एक कोना, घर के प्रत्येक सदस्य का आपसी व्यवहार, उनकी वाणी सब कुछ उस बच्चे पर अपना प्रभाव डालना शुरू कर देते हैं. इसलिए घर के माहौल को बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा का प्रथम अध्याय और पाठ्यक्रम कहा जा सकता है.
अब बात आती है कि जब बच्चा घर के बाहर निकलकर विद्यालय का रुख करेगा तब पढायेंगे क्या, पाठ्यक्रम क्या होगा? क्योंकि घर के बाहर कदम रखते ही उसे समाज के कई रूप देखने पड़ेंगे क्योंकि समाज स्वयं एक संघ है, संगठन है और औपचारिक सम्बंधों का योग भी है. इसलिए बाहर की दुनिया में उसे कई अवसरों पर बहुत सी ऐसी परिस्थियों का सामना करना होगा जिसे उसने ना तो कभी देखा होगा और ना कभी जाना होगा और ऐसे में यौन शिक्षा की वकालत करना – ताज्जुब है लोगों की ऐसी सोच पर.
यौन शिक्षा की वकालत करने वालों को अपनी वकालत से पूर्व भली भांति इसके व्यावहारिक गुण दोषों को खंगाल लेना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा विषय है जिसमे हम ज्यादा बताने में असमर्थ होंगें और बच्चॆ चूँकि स्वाभाव से ही जिज्ञासु प्रबृत्ति के होते है इसलिए ऐसी पहल का अनुकूल प्रभाव की बजाय विपरीत प्रभाव ज्यादा पड़ेगा. ऐसे विषयों का श्रवण उन पर मनन फिर उस पर चिंतन तत्पश्चात उनका प्रयोग और फिर व्यवहार में अमल लाने की पहल, क्या इसकी वकालत करने वालों ने इन पहलुओं पर गौर नहीं किया?
मेरा मानना तो ये है कि हमारे नीति नियंताओं और माननीयों को यौन शिक्षा की बजाय योग शिक्षा की वकालत करनी चाहिए जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके. योग से बच्चे शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से स्वस्थ होंगे और स्वस्थ मन स्वस्थ तन और स्वस्थ चिंतन के साथ मन, विचार सब उन्नत होंगें जिससे आचरण स्वतः ही शुद्ध रहेगा और तभी हम बना पाएंगे अपने सपनों का भारत क्योंकि योग से जीवन में अनुशासन आता है और साथ ही योग चित्त की वृत्तियों का निरोध भी है.
पर हाँ पाठ्यक्रम में योग शिक्षा की अनिवार्यता हो पायेगी इस पर संदेह सिर्फ इस बात से है कि कहीं विदेशों में जमा काले धन के मुद्दे पर सरकार की आँखों की किरकिरी बन चुके योग गुरु स्वामी रामदेव जो पूरे देश को योग के रंग में रंग चुके हैं जैसे बहुतेरे ना तैयार हो जायें फिर ऐसी स्थिति में कठघरे में घिरी सरकार और उसके संरक्षण में पल रहे लोगों का क्या होगा.
चलते चलते एक बात और, यौन शिक्षा से सेक्स के बारे में ज्ञान तो दिया जा सकता है परन्तु बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता क्योंकि ज्ञान तो रावण के पास भी असीमित था पर वह अपनी असुरी प्रवृति नहीं छोड़ सका.
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