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हाल ही में उच्चतम न्यायलय के न्यायमूर्ति एच.एल.दत्तू की अध्यक्षता वाली पीठ ने अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद ढांचा विध्वंस मामले में सीबीआइ को अतिरिक्त हलफनामा दाखिल करने के लिए और समय देने से मना करते हुए ही इस मामले को सीबीआइ द्वारा “राष्ट्रीय अपराध” बताने पर अपनी आपत्ति भी जताई. न्यायलय ने सीबीआइ से पूछा कि जब उसके मुताबिक यह मामला इतना महत्वपूर्ण था तो उच्च न्यायलय के आदेश के खिलाफ अपील दाखिल करने में इतनी देर क्यों हुई.
उच्चतम न्यायलय की यह आपत्ति वास्तव में स्वागत योग्य है क्योंकि हर दिन मुठ्ठी भर लोग कुटिल राजनीतिक कारणों से देश को मंदिर और मस्जिद जैसे मामलों से कभी बाहर नहीं निकलने देना चाहते. यह खबर कितनी खास है या कितनी आम है यह तो नहीं पता परन्तु न्यायलय द्वारा “राष्ट्रीय अपराध” जैसे शब्द के प्रयोग पर आपत्ति ने इसे जरुर खास बना दिया और मैं सोच में पड़ गयी कि वास्तव में “राष्ट्रीय अपराध” क्या हो सकता है या फिर किस अपराध को “राष्ट्रीय अपराध” कहा जा सकता है.
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चंद महीनों पूर्व दिल्ली में गैंग रेप की पीड़िता के प्रति पूरा देश आक्रोशित हो उठा था. आरोपियों में एक नाबालिग भी था. यद्यपि कानून धीरे धीरे अपना काम कर रही है और कब, किसको, कितनी सजा मिलेगी ये तो पता नहीं. पर क्या बलात्कार एक “राष्ट्रीय अपराध” है? वैसे राष्ट्रीय अपराध पर कुछ विशेष ढूंढते ढूंढते मैं “राष्ट्रीय अपराध” ब्यूरो की साइट पर पहुँच गयी और वहाँ से पता चला कि 2009 से 2011 के बीच 22,825 बच्चों के साथ पड़ोसियों द्वारा बलात्कार के मामले सामने आये थे. तो क्या ये सब भी “राष्ट्रीय अपराध” के दोषी माने जायेंगे या नहीं?
देश से लाखों करोड़ रुपये लूट कर विदेशों में काले धन के रूप में जमा किया जा चुका है. पिछले एक दो वर्षों को ही लें तो टू जी घोटाला, सी डब्ल्यू जी घोटाला, कोल गेट घोटाला आदि में लाखों करोड़ रुपयों की हेरा फेरी से देश अवगत हुआ. अकेले मध्य प्रदेश की बात करें तो लोकायुक्त के छापे में प्रशासनिक अधिकारी से लेकर बाबुओं द्वारा कई करोड़ घोटाले का पर्दाफाश आये दिन होता ही रहता है. तो क्या ऐसे घोटाले “राष्ट्रीय अपराध” हैं?
आये दिन किसान आत्महत्या करते हैं, दिन रात कड़ी मेहनत के पश्चात भी उनके द्वारा उत्पादित खाद्यान्न के विपणन की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती है. उतपादन और विपणन में मध्यस्थता जैसे कार्यों के लिए विदेशी किराना को मंजूरी क्या “राष्ट्रीय अपराध” है?
पूरे देश में कहीं भी चले जाइए, कूड़े और गंदगी के ढेर के साथ नदी और नाले सब बजबजाते मिलेंगे. ऐतिहासिक स्थलों से लेकर अस्पताल और बस एवं रेलवे स्टेशन तक गंदगी की भरमार है. तो क्या गंदगी फैलाना “राष्ट्रीय अपराध” हो सकता है?
सबको पता है सिगरेट, शराब और गुटखा जैसे पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं फिर भी धडल्ले से इनका उत्पादन और बिक्री हर जगह जारी है. तो क्या मामूली राजस्व के लिए इसकी अनदेखी “राष्ट्रीय अपराध” है?
हैं तो ये सभी अपराध क्योंकि किसी भी सामाजिक नियम को तोडना ही अपराध कहलाता है अब चाहे वह आर्थिक नियम हो, राजनीतिक नियम हो, धार्मिक नियम हो या फिर रहन-सहन के अन्य नियम हों. भारत के संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भी ऐसा ही प्रतिबिंबित होता है जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा है कि “हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं”.
प्रस्तावना पढ़ने और समझने के पश्चात “राष्ट्रीय अपराध” की परिभाषा स्वतः थोड़ी और स्पष्ट हो जाती है परन्तु शायद हमारे नीति निर्धारक संविधान की रक्षा करने की शपथ लेने के पश्चात भी इससे असहमति ही जताएंगे अन्यथा अपराधी वे स्वयं घोषित हो जायेंगे. क्यों?
क्योंकि संविधान की प्रस्तावना में सबसे पहले सामाजिक और आर्थिक अवसर की समता की बात कही गयी है. तो क्या आज़ादी के इतने लंबे समयांतराल के पश्चात हम इसे हासिल कर पाए हैं? नहीं. तो क्या हमने इसके लिए ईमानदारीपूर्वक प्रयास किया है? नहीं. तो क्या कभी हासिल कर पाएंगे? प्रयास की जिम्मेदारी किसकी थी या किसकी है? अपने काम को निष्ठापूर्वक अंजाम नहीं देना क्या “राष्ट्रीय अपराध” हो सकता है?
आज देश में चुनौतियाँ बहुत हैं, हर स्तर पर मुंह बाए खड़ी रहती हैं चुनौतियाँ. आज भी मन में हूक सी उठती है जब देखती हूँ कि कोई इंसान भूखा सोता है. मन रोता है जब सुनती हूँ कि एक गरीब माता पिता गरीबी के कारण अपने कलेजे के टुकड़े अपने बच्चे को बेच देते हैं. मन चीत्कार उठता है जब बेरोजगारी के कारण देश का युवा आत्महत्या कर लेता है. सिहर उठती हूँ जब देखती हूँ कि बर्फीली हवाओं, चिलचिलाती धूप और मूसलाधार बारिश में एक गरीब को रहने का ठिकाना नहीं मिलता है. एक मजदूर जो दिन रात एक करके ऊँची ऊँची इमारतों को अपने खून पसीने से बनाता है फिर उसी ईमारत को हसरत भरी निगाहों से ताकता है. दिल भर आता है जब खेलने कूदने और पढ़ने की उम्र में बच्चे भीख मांगने पर मजबूर होते हैं.
यही नहीं हमारे नीति नियंता विकास के बड़े-बड़े दावे करते हैं पर उन्हीं दावों के बीच का एक सत्य यह भी है कि भारत में आज भी हर साल लाखों बच्चे इसलिए मर जाते हैं, क्योंकि उन्हें भर पेट खाना नहीं मिलता है. हाल ही में महाराष्ट्र से एक आंकड़ा निकल कर आया कि वहाँ कुपोषण से हर साल लगभग 30 हजार से ज्यादा बच्चों की मौत हो जाती है. क्या इसे “राष्ट्रीय अपराध” कहा जा सकता है?
यद्यपि अपराध शास्त्र (Criminology) में अपराध, अपराधी, आपराधिक स्वभाव एवं अपराधियों के सुधार का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है जिसके अंतर्गत अपराध के प्रति समाज का रवैया, अपराध के कारण, अपराध के प्रकार, अपराध के परिणाम तथा अपराध की रोकथाम का भी अध्ययन किया जाता है. परन्तु क्या उपरोक्त पंक्तियों में वर्णित अपराध की जिम्मेदारी कोई लेने को तैयार है?
केवल यही नहीं यदि हम स्वास्थ्य और शिक्षा की बात करें तो स्थिति कम भयावह नहीं है. जो पेट भर खा नहीं सकता वो इलाज और पढ़ाई की बात सोच सकेगा, यह सोचना ही भूख का मजाक उड़ाना है. नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के अनुसार भारत में बुनियादी सुविधाओं की कमी असामनता के लिए जिम्मेदार है और आने वाले वर्षों में स्वास्थ्य, शिक्षा और मानवाधिकार जैसे सामाजिक सूचकांकों को बहस का मुद्दा बनाया जाना चाहिए.
कहने को तो तमाम योजनाएं चलायी जाती हैं इन बुनियादी सुविधाओं को लेकर पर क्या योजनाएं बनाने वाले, योजनाओं को लागू करवाने और करने वाले इन योजनाओं को लेकर ईमानदार हैं? यदि नहीं तो क्या वे “राष्ट्रीय अपराध” करने की श्रेणी में रखे जाने के हकदार नहीं हैं? क्योंकि उन्हीं के कारण एक आम आदमी इन बुनियादी सुविधाओं, इन बुनियादी जरूरतों से आज भी मीलों दूर है.
तो क्या इसके जिम्मेदार लोग एक बहुत बड़ा “राष्ट्रीय अपराध” नहीं कर रहे हैं?
“राष्ट्रीय अपराध” है. आप क्या सोचते हैं?
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