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हाल की कुछ घटनाओं को जब भी याद करती हूँ मन अशांत हो जाता है. ये सब हाल की ही कुछेक घटनाएँ हैं. एक तरफ अन्ना की आंधी चल रही थी और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ बढते जन आंदोलन से घबराई सरकार ने कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को उनके कुछ कार्टून के खिलाफ राज द्रोह जैसे संगीन मुकदमे में गिरफ्तार कर लिया यही नहीं कार्टून बनाकर पश्चिम बंगाल में भी एक कार्टूनिस्ट फंस गया था. दिल्ली के रामलीला मैदान में स्वामी रामदेव अपने समर्थकों के साथ विदेशों में जमा काले धन के खिलाफ और व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को लेकर डटे ही थे कि आधी रात में सत्ता के आदेश पर सशस्त्र पुलिस बल ने उन पर व उनके समर्थकों पर हमला बोल दिया, पूरा देश शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे के देहांत से शोकाकुल था और थाणे में दो लड़कियों को फेस बुक पर टिप्पणी करने के कारण जेल की हवा खानी पड़ गयी. सलमान रुश्दी की पुस्तक द सेटेनिक वर्सेज में कुछ अंश के कारण के कारण उनके खिलाफ ऐसा फ़तवा जारी है कि आज भी रुश्दी को किसी समारोह में बुलाने का अर्थ है समारोह का सौ प्रतिशत रद्द होना. जयपुर साहित्य उत्सव के दौरान आशीष नंदी का बयान उनके गले की फांस बन गया और एससी एसटी एक्ट के तहत गिरफ्तारी की तलवार उन पर लटका दी गयी. न्यायलय ने भले ही चेतावनी और माफीनामे के बाद नंदी को बख्श दिया लेकिन उनकी परेशानी और दुर्दशा पूरी दुनिया ने दूरदर्शन पर जरूर देखा. और फिर आया नंबर कमल हासन की मेगा बजट फिल्म विश्वरूपम का जो तमिलनाडु में प्रतिबंधित होकर बहस का मुद्दा बन गयी. हालिया फैसले के मुताबिक भले ही फिल्म को कुछ कांट छांट के साथ रिलीज किया जा रहा है लेकिन इन सभी वाकयों ने सोचने, लिखने और दर्शाने जैसी भावनाओं पर लगाम कसने का काम तो कर ही दिया है. शायद इसीलिए मन अशांत है.
अक्सर मानव रहित रेलवे फाटकों पर लिखा मिलता है ‘रुकिए’ ‘देखिये’ और ‘जाइए’. सही भी है रेलगाड़ी तो अपनी रफ़्तार से आएगी ही, फाटक पार करने वाले को ही सजग रहना पड़ेगा. पर क्या भावनाओं की अभिव्यक्ति के मामले में इस ‘रुकिए’ ‘सोचिये’ और उसके बाद ही ‘व्यक्त’ कीजिये वाला स्लोगन उचित है. भावनाओं को शब्दों या रेखाओं या चलचित्र में ढालने के पहले यह सोचना जरूरी है कि क्या यह किसी को ठेस तो नहीं पहुंचा रहीं हैं. हाँ यह जरुरी हो सकता है पर क्या यह भावनाओं को बाँध सकने में सक्षम है? यदि बात किसी चिन्तक की हो, बात यदि किसी कलाकार की हो, बात यदि किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता की हो तब विचारों पर इस तरह का प्रतिबन्ध मुश्किल होता है क्योंकि प्रतिबंधित विचार निष्कर्ष देने में कभी सक्षम नहीं होंगे.
जिस प्रकार का विरोध उक्त तमाम वाकयों में राजनीति के इशारे पर हुआ उसे बहुतों ने सांस्कृतिक आतंकवाद का नाम दिया पर मुझे लगता है कि यह सांस्कृतिक आतंकवाद नहीं होकर राजनीतिक आतंकवाद है. ये सभी मामले यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि हमारे नेताओं और हमने, हम सभी ने आज पता नहीं कितनी मिथ्या भरी अवधारणाओं में अपने आपको कैद कर लिया है जिससे बाहर निकलने का रास्ता तलाशने की बजाय उसे अपनाने में विश्वास करने लग गए हैं हम. क्या यह लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र के साथ न्याय का जीता जागता उदहारण नहीं है?
हम न्याय की बातें करते हैं न्यायवाद की बातें करते हैं. न्यायवाद अर्थात लीगलिज्म, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था कही जा सकती है जिससे जाने अन्जाने में स्वार्थ भरी राजनीति के कारण आज लोगों की दूरियां बढती ही चली जा रहीं हैं. कोई भी क्षेत्र हो, हमारे नीति निर्धारकों द्वारा उनको प्रदत्त शक्तियों का खुला दुरुपयोग किया जा रहा है. इन्हीं कारणों से आज लोकतन्त्र की सच्ची भावना कहीं दब सी गयी है और उसका विकास रुक गया है. बढती असहिष्णुता को कम नहीं कर पा रहे हैं हम जिससे पता चलता है कि हमें अपने उद्देश्य की पवित्रता में अविश्वास है. इसलिए आज सबसे बड़ी जरूरत है भारत की मूल पहचान को पुनः आत्मसात करने की और इसके लिए हमें कहीं कहीं अपनी अनुनादी प्रवृत्ति को भी त्यागना पड़ सकता है.
अनुनादी प्रवृत्ति को समझने के लिए थोडा भौतिकी को जानना होगा. भौतिकी में बहुत से तंत्रों की ऐसी प्रवृत्ति होती है कि वे कुछ निश्चित आवृत्तियों पर बहुत अधिक आयाम के साथ दोलन करते हैं उनकी ऐसी स्थिति को रेजोनेन्स अर्थात अनुनाद कहते हैं. मशीनों, पुलों आदि के लिए यह अनुनादी प्रवृत्ति बाहर खतरनाक मानी जाती है. आज भी मुझे अपने पुस्तक की वह पंक्ति याद है जिसमें लिखा था कि जब सेना किसी पुल पर मार्च करे तो उसे अपना कदम ताल तोड़ देना चाहिए अन्यथा पुल के टूटने की संभावना बन सकती है इसका कारण भी अनुनाद ही है क्योंकि कदमताल और पुल दोनों की आवृत्तियाँ मिल जाती हैं. यही अनुनादी प्रबृत्ति संभवतः हमारे लोकतंत्र पर काबिज हो रही है जबकि आवश्यकता है बस सहनशीलता के साथ थोड़ी सी धैर्यता की. सब कुछ ठीक हो सकता है यदि सामने वाले के विचारों को राजनीति से इतर होकर देखने और समझने का प्रयास हम कर सकें क्योंकि जब तक विचार मथे नहीं जायेंगे तब तक उसमें से क्रीम निकल कर बाहर नहीं आएगा.
इसलिए यदि लोकतंत्र से राजनीति के इशारे पर हो रही ऐसी अनुनादी प्रवृत्ति शीघ्र नहीं हटाई गयी तो लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है, नीति निर्धारकों के साथ ही समाज के प्रत्येक वर्ग चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख या ईसाई हो सभी को इस दिशा में गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए.
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