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जयपुर में कांग्रेस चिंतन शिविर में यक़ीनन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी का वक्तव्य संगठनात्मक दृष्टि से सुनने और समझने योग्य था. वक्तव्य में शब्दों का चुनाव और उनके पीछे कंग्रेसियत की भावना भी झलक रही थी. भले ही भाषण के शब्दों को चुनने वाला कोई और हो, उसे शब्दों में कागज़ पर उतारने वाला कोई और हो और उसे आवाज देने वाली सोनिया गाँधी स्वयं हों परन्तु भाषण पूरी तरह से संगठन की दशा पर जायज चिंता को अपने आप में समाहित किये हुए था. राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से दिशाहीन हो चुकी कांग्रेस एवं कांग्रेसियों के लिए इस चिंतन शिविर को एक बढ़िया मौका माना जा सकता है परन्तु चिंता की बात है कि देश में लगभग पांच दशकों तक शासन करने वाली कांग्रेस अपने इस चिंतन शिविर से देश को क्या देने की तयारी कर रही है. क्या कांग्रेस का यह चिंतन शिविर देश को क्जिंतित होने पर मजबूर ना कर दे.
जैसी की चर्चा है और सोनिया गाँधी ने भी अपने भाषण में स्पष्ट किया, इस कांग्रेसी चिंतन शिविर में मुख्यतया पांच विषयों पर चर्चा हुयी जिसमें मुख्य रूप से उभरती संगठनात्मक ताकत की समीक्षा के साथ ही राजनीतिक चुनौतियां प्रमुख रहीं.सोनिया गांधी ने हालिया विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार पर चिंता जाहिर करते हुए कांग्रेस की पांच नाकामियों को गिनाया. कांग्रेस की पहली चिंता थी कि उसके परंपरागत वोटर कांग्रेस से दूर हो रहे हैं, दूसरी चिंता भ्रष्टाचार को लेकर दर्शाई गयी, तीसरी चिंता महिलाओं की सुरक्षा को लेकर, चौथी सोशल मीडिया से उत्पन्न परेशानी और पांचवीं यह कि जिन योजनाओं को कांग्रेस लेकर आयी उसका श्रेय वह नहीं ले पायी.
श्रीमती गाँधी का यह कहना कि जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें नहीं हैं, वहां उनकी पार्टी को अपनी निजी महात्वाकांक्षाओं और अहम को भुलाकर फौरन एकजुट होना चाहिए जिससे पार्टी की जीत हो, इस चिंतन शिविर के उद्देश्य को स्पष्ट कर देती है कि आगामी लोकसभा चुनाव के बिगुल के बजने की तैयारी शुरू हो चुकी है. शायद इसीलिए शिविर में पहुंचे कांग्रेसियों में राहुल गांधी को आगे ले जाने के लिए बयानबाजी की होड़ मच गयी है. कोई उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर आमादा है तो कोई उनके पार्टी में नई जिम्मेदारी संभालने का संकेत देता है.
अब सवाल उठता है कि वास्तव में कांग्रेस इस शिविर के माध्यम से वास्तव में क्या चाहती है. क्या वह भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई अभियान छेड़ने के लिए पहल करेगी, क्या वह महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई सशक्त क़ानून ले आएगी, क्या वह सोशल मीडिया से तंग आकर उसको बैन करना चाहेगी या उसके सकारात्मक पहलू का सकारात्मक उपयोग करेगी. क्योंकि इन सबको किये बगैर तीन दिवसीय तो क्या तीन वर्षीय शिविर भी बेकार ही जायेंगे क्योंकि आज़ादी के पांच दशकों में भारत की जनता कांग्रेस को जान भी चुकी है और पहचान भी चुकी है.
सबसे पहले बात करें भ्रष्टाचार की, क्योंकि भ्रष्टाचार से ही लगभग सारी समस्याएँ जुडी हुईं हैं और मेरी समझ से आज देश सबसे ज्यादा इसी पीड़ा से गुजर रहा है.. आश्चर्य है अपने गिरेबान में झाँकने की बजाय कांग्रेस ने भ्रष्टाचार को लेकर हुयी उसकी फजीहत का ठीकरा कहीं ना कहीं स्वामी रामदेव, अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल जैसों पर फोड़ा जबकि देश भी यह जान और समझ चुका है कि स्वामी रामदेव, अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल ने देश को जगाने और बताने का काम किया कि कैसे वे अपने नेताओं के कारण लुट रहे हैं. आश्चर्य है पूरे शिविर में कहीं भी विदेशों और साथ ही देश के अन्दर जमा अथाह काले धन को लेकर किसी प्रकार की कोई चर्चा नहीं हुयी. आश्चर्य है कि पूरे शिविर में भ्रष्टाचार से बचने के लिए जन लोकपाल बिल जैसे अहम् मुद्दे पर कोई कुछ भी नहीं बोला. क्या मतलब निकाला जाये इस चिंतन शिविर में ऐसे सबसे अहम् मुद्दे पर कांग्रेस की खामोशियों का. क्या हम भूल जाएँ टू जी को, क्या हम भूल जाएँ सी डब्ल्यू जी को, क्या हम भूल जाएँ कोल गेट को, क्या हम भूल जाएँ वाड्रा की परिसंपत्तियों को. क्यों क्योंकि इन सभी के तार कांग्रेस से जुड़े हैं इसलिए और संभवतः इन तारों को छेड़ने से शॉर्ट सर्किटिंग का खतरा बढ़ जायेगा.
अब बात करें कांग्रेस के परंपरागत वोटरों के दूर होने की और सोशल मीडिया के कारण उपजी कांग्रेस के परेशानी की तो बड़े आश्चर्य की बात है इक्कीसवीं सदी की ओर बढ़ते हुए हम उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के फार्मूले से ही सारे प्रश्नों को हल करने का प्रयास कर रही है कांग्रेस. चंद लोगों को छोड़कर अब ना कोई जात-पात की बात करना पसंद करता है और ना ही कोई धर्म के नाम पर वोट डालने निकलता है और इसका ताजा उदहारण गुजरात विधान सभा चुनाव में लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी की हुयी जीत है. वोटर तो ढूंढ रहे हैं एक सशक्त नेता को जो विकास को आगे बढ़ा सके, जो भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सके, जो दुःख-सुख में उसका साथी बन सके ना कि उसे डीजल – पेट्रोल की तरह बाजार के हवाले कर दे.
इसी तरह महिलाओं की सुरक्षा को लेकर उठते सवाल हैं. कानून बनाने से कहीं ज्यादा कानून के पालन और लोगों के चारित्रिक निर्माण की आवश्यकता है जिस पर कहीं बात नहीं हुयी इस पूरे शिविर में. किसी ने यह जरूरत नहीं समझी कि सुरक्षा के लिए हमारी पुलिस जिसे नेताओं की सुरक्षा करने से ही फुर्सत नहीं मिलती उसको थोडा मुक्त कर आम जनता को सुरक्षा प्रदान करने की बात कहे.
और अंत में राहुल गाँधी यानि कांग्रेस के युवराज की ताजपोशी अर्थात उनको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने या फिर कोई संगठन में अहम् जिम्मेदारी सौंपने की. जब कभी भी इस बहस को सुनती या पढ़ती हूँ तो लगता है जैसे मैं किसी सत्रहवीं शताब्दी में जी रही हूँ. आज हम स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक हैं जहाँ भारत का अपना संविधान, भले ही वह अंग्रेजियत की झलक रखता हो, लागू है. यहाँ ना कोई राजा है और ना ही कोई प्रजा, यहाँ लोकतंत्र है जहाँ जनता ही जनार्दन होती है. तलाश है तो एक नेता की ना कि किसी युवराज की जो सिंहासन खाली होने पर गद्दी को संभाल सके. राहुल गाँधी पिछले लगभग एक दशक से भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं और कांग्रेस के अतिरिक्त सभी का यह मानना है कि आज तक वह नेता के रूप में अपने आपको स्थापित नहीं कर सके.
राहुल गाँधी में नेतृत्व का कितना गुण है इसकी झलक विधान सभाओं के चुनावों में लोग परख चुके हैं. खैर वो तो चुनाव की बात थी, हो सकता है वोटर की मंशा को परखने में स्थानीय कांग्रेस उनकी मदद नहीं कर पाई हो लेकिन इसके अतिरिक्त भी किसी भी ज्वलंत मुद्दे और मौके पर राहुल कोई प्रयास करते नहीं दिखे. नेतृत्व करने वाले को नेतृत्व के पहले पाठ में सबसे मेल-जोल रखने का पाठ पढना चाहिए और हमेशा पाने की बजाय कभी-कभार देने की भावना से भी भरा होना चाहिए पर राहुल गाँधी पर नेहरु खानदान का और कांग्रेस के युवराज होने का जो ठप्पा लगा है वह शायद उनको यह सब करने इजाजत नहीं देता है. अन्यथा जब काले धन के मुद्दे पर स्वामी रामदेव के समर्थकों पर अर्ध रात्रि में पुलिसिया कार्यवाही हो रही थी तो वह जरूर कुछ बोलते, जब जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर अन्ना की आंधी चल रही थी तब भी वो खामोश ही रहे. और तो और जब दिल्ली दुष्कर्म पर देश उबल रहा था तब भी वो कहीं नजर नहीं आये. अगर इन मौकों पर आगे आते तो जरुर जनता का समर्थन भी हासिल कर पाते. यही नहीं सबसे ज्यादा आश्चर्य तो तब हुआ कि जब इसी शिविर में गृह मंत्री सुशिल शिंदे ने हिंदू आतंकवाद जैसा शर्मनाक बयान दिया और राहुल उस पर कोई टिप्पणी नहीं किये.
कांग्रेस भले ही अपने इस शिविर को चिंतन शिविर का नाम दे परन्तु देश की सबसे बड़ी पार्टी जो कि आज की तारीख में सत्ता में भी है और पांच दशकों तक देश पर राज कर चुकी है, उसके चिंतन शिविर से निकल कर आये चिंता के मुद्दों में से देश हित के मुद्दे गायब हो जाने के कारण यह शिविर निश्चित ही आम जन को गहराई तक चिंतित कर रही है कि क्या हम वास्तव में नेतृत्व विहीन हो चुके हैं और सवा सौ करोड़ की जनसँख्या घनत्व वाले देश से एक नेता को नहीं ढूंढ पा रहे हैं जो राज नीति से ऊपर उठकर राष्ट्र नीति की बात कर सके. कांग्रेस ने अपने चिंतन से यह स्पष्ट कर दिया है कि वह सत्ता में बने रहने के लिए ही केवल चिंतित है, इसलिए अब बारी है देश की जनता के चिंतन की कि वो क्या चाहती है क्योंकि देश से भले ही पोलियों समाप्त हो गया हो परन्तु देश की राजनीति पूरी तरह से पोलियो ग्रस्त हो चुकी है और हमारे नेता हमें मजहब, जाति. आरक्षण जैसे मुद्दों से कभी ऊपर नहीं उठने देंगे.
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