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अच्छे पड़ोसी की पहचान

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एक अच्छे पड़ोसी की क्या पहचान है?

जब भी चाय की तलब हो पड़ोसी के घर की तरफ मुंह उठाये चले आओ. लेकिन मेजबान भी क्या करे जब पड़ोसी बार-बार अपनी छिछोरी हरकत से बाज ना आये. अब इसमें मेजबान को कुछ तो उपाय सोचना ही होगा. क्योंकि कुछ पड़ोसी तो अपनी शुरुआत चाय बनाने के लिए चाय की पत्ती की गुहार से करते है. अगर गलती से उसे मना नहीं किया गया और एक बार उसे हमने चाय की पत्ती दे दी तो अगली बार वो चीनी मांगने भी चला आएगा. अगर चीनी भी दे दिया तो फिर वह दूध मांगने आएगा. और जब उसे पता लग जायेगा कि यहाँ तो फुसलाने या छीनने की आवश्यकता ही नहीं सब कुछ मांगने पर ही मिल जाता है, शराफत के लिबास में मूर्खों से पाला पड़ा है तो चालाक पड़ोसी की तरह वह अगली बार पत्ती, चीनी और दूध मांगने की बजाय यही कहेगा कि सामान मत दो बल्कि चाय बनाकर ही पिला दो. फिर नौबत यहाँ तक आ जायेगी कि अपनी रसोई खाली कर दो चाय हम स्वयं बनायेंगे और फिर रसोई के बाद धीरे-धीरे पूरा घर ही अपना यानि आपको मिलेगी पहले की गयी गलती की सज़ा. भले ही यह कथन हर जगह हर पड़ोसी पर लागू नहीं होता हो पर फिर भी पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश के साथ रहने के लिए ऐसे कथन सीख और इशारा जरूर देते हैं.

कहने का तात्पर्य यही है कि जब कभी भी हम किसी की पहली गलती, भले ही वह किसी भी प्रकार से की गयी हो, अगर उसे माफ कर देते हैं या फिर नजरअंदाज कर देते हैं तो इसका सीधा अर्थ यही होता है कि हमें उसकी यह गलती किन्हीं कारणों से स्वीकार्य है, भले ही गलती करने वाले ने जानबूझकर गलती को किया हो. और जब आप किसी की पहली गलती को स्वीकार्यता दे देते हैं तो गलती करने वाला आपकी स्वीकार्यता को कायरता मानकर दुस्साहसी हो जाता है और फिर गलतियों पर गलतियाँ. पाकिस्तान की कार्यवाहियों पर हमारे नीति निर्धारक केवल भाषाई कार्यवाही करते हैं और जो भाषा हमारे देश के शीर्षस्थ लोग बोलना जानते हैं वह भाषा पाकिस्तान समझ चुका है और उसका उत्तर देना पाकिस्तान को बेहतर आता है. अमन, प्रेम, सौहाद्र जैसी भावनाएं और बातें दोनों ही चीजें पाकिस्तान के समक्ष भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है.

भारत-पाकिस्तान सीमा पर हाल ही में घटना निश्चित रूप से अमानवीय घटना है जिसमें पाकिस्तानी सैनिकों, जिन्हें सैनिक की बजाय आतंकवादी कहा जाये तो बेहतर होगा, ने बेरहमी से हमारे एक सैनिक का सिर काट लिया. सिर को वे अपने साथ ले गए और सैनिक का सिर विहीन धड़ हमें चुनौती स्वरुप छोड़ गए. निश्चित रूप से पाकिस्तान कि तरफ से किया गया यह कृत्य किसी गलती का परिणाम नहीं था बल्कि भली भांति सोच समझकर और जानबूझकर की गयी एक कार्यवाही थी जो स्पष्ट रूप से पाकिस्तानी हुक्मरानों के इशारे पर हुयी कार्यवाही ही है. पाकिस्तान जानबूझकर ऐसे कारनामों को अंजाम देता रहता है जिसका खामियाजा हमारे सैनिकों को अपनी जान गँवाकर भुगतना पड़ता है. भारत पाक नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान ने जिस बर्बरतापूर्ण कार्यवाही को अंजाम दिया है उसमें कुछ भी नया नहीं है. पाक की ऐसी कार्यवाहियों से हमारे नीति नियंता सबक लेने की बजाय भारत में चल रहे या कह सकते हैं कि चल चुके नए चलन के मुताबिक बयान देने लग जाते हैं. कभी कोई नेता प्रेस कांफ्रेंस करेगा तो कभी कोई.

आज देश के शीर्ष पर बैठे लोगों के कारण देश की वाह्य और आंतरिक दोनों ही स्थिति असहज होती जा रही है. देश की अंदरूनी समस्याएं हो या फिर सीमा पार की समस्याएं हों, भारत की आम जनता अपने नेताओं के खोखले बयानों और आश्वासनों से बुरी तरह आजिज आ चुकी है. पाक के इरादे, आतंकवादियों के इरादे, नक्सलियों के इरादे, माओवादियों के इरादे, भ्रष्टाचारियों के इरादे, बलात्कारियों के इरादे इन सभी के इरादे नापाक हैं ये भारत की आम जनता भी जानती और समझती है पर सरकार और नीति निर्धारकों की रणनीति ऐसे नापाक इरादों से निपटने के लिए पाक है या वह भी पूरी तरह से नापाक हो चुके हैं, सीमाओं के प्रहरी, उनका परिवार और भारत की आम जनता अब इसे भी समझना चाहती है.

पाकिस्तान द्वारा ऐसी कार्यवाहियों के पीछे कारण तो कई हो सकते हैं क्योंकि तमाम समझौतों, नसीहतों, बैठकों, मुलाकातों आदि को दरकिनार करते हुए यदि कोई देश इस प्रकार का कृत्य करता है वो भी अपने पड़ोसी देश के साथ, तो मामले की गंभीरता कहीं ज्यादा बढ जाती है. सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यूँ है, ऐसी कौन सी वजहें हैं कि पाकिस्तान बार-बार अपनी कारगुजारियों से बाज नहीं आता है और बार-बार हमारे नीति निर्धारक केवल बयानबाजी तक सीमित रह जाते हैं. जग जाहिर है कि कश्मीर पर बार-बार पाकिस्तान अपनी लार टपकाने से बाज नहीं आता है. बंटवारे से लेकर अब तक पता नहीं कितनी बैठकें और कितने दौर की बातचीत हो चुकी है और इस दौरान ना जाने कितनी सरकारें बदल गयीं और ना जाने कितने लोग इस देरी की भेंट चढ गए पर हल ना तो निकल सका और ना ही ढुलमुल रवैये के कारण निकल सकता है ये सभी जानते हैं. कहते हैं कुछ समय पहले भारत और पाकिस्तान पिछले दरवाजे से कश्मीर समस्या के हल की कोशिश में थे और कामयाबी के करीब तक पहुंच भी गए थे लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन पाक राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के बीच अंतिम सहमति बनते-बनते रह गई और इस मसले पर कभी भी दो टूक फैसला नहीं किया जा सका तो क्या पाकिस्तान भी किसी के इशारे पर काम कर रहा है या फिर उसकी स्वयं की ही कोई मंशा है.

स्पष्ट है कि पाकिस्तान अपने पड़ोसी यानि हमें समझ चुका है पर शायद हम स्वयं अपने आपको नहीं समझ पाए हैं, अपने शराफत के चोंगे में से हमें भी बाहर निकलना होगा. उसकी गोली-बन्दूक की कार्यवाहियों के बदले शब्दों के खेल को बंद करना होगा क्योंकि ऐसे प्रयास बेनतीजा ही होंगे. शब्दों के खेल से कमजोरी और डर जैसी चीजें झलकती है. क्या हम कार्यवाही से डरते हैं, क्या हमारी सैन्य व्यवस्था दुरुस्त नहीं है, क्या हमारी अर्थ व्यवस्था हमें इसकी इजाजत नहीं देती?

किसी भी निश्चय से पूर्व भारत को अपने आपको खंगालना होगा कि क्या हम किसी मामले में पाकिस्तान से कमजोर तो नहीं हैं मसलन अर्थ व्यवस्था, सैन्य शक्ति या फिर अंतर्राष्ट्रीय साख जैसे मुद्दों पर. यक़ीनन इन सभी का उत्तर नहीं में है, फिर आखिर क्या कारण है कि जब जिसकी मर्जी हो आँखें तरेर जाए. पड़ोसी देश जब चाहे हमें धता बता दे और उसकी कार्यवाही के बदले हम बातों में ही उलझे रहें. उससे इस अंदाज में पूछ्ते फिरें कि मान्यवर जो कुछ तुमने किया वह मजाक था या गंभीरता के साथ उठाया हुआ कदम था क्योंकि हम भारतीय मजाक पसंद नहीं करते. अगर तुमने यह कृत्य मजाक स्वरुप किया है तो इसके गंभीर परिणाम होंगे और अगर गंभीरता के साथ किया है तो इसके गंभीर परिणाम हों सकते हैं लेकिन करेंगे कुछ नहीं, यही हमारी फितरत है.

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