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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रार्थना की चंद पंक्तियाँ के साथ इस ब्लॉग की शुरुआत कर रही हूँ:
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दू भूमे सुखं वर्धितोहम
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते.
अर्थात हे वात्सल्यमयी मातृभूमि, तुम्हें सदा प्रणाम, इस मातृभूमि ने हमें अपने बच्चों की तरह स्नेह और ममता दी है. इस हिन्दू भूमि पर सुखपूर्वक मैं बड़ा हुआ हूँ, यह भूमि महा मंगलमय और पुण्यभूमि है. इस भूमि की रक्षा के लिए मैं यह नश्वर शरीर मातृभूमि को अर्पण करते हुए इस भूमि को बार-बार प्रणाम करता हूँ.
सचमुच कितना सुकून है उक्त पंक्तियों में परन्तु आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भगवत जी के हालिया बयानों की कुछ पंक्तियों को कुछ ज्यादा ही चर्चा का विषय बना दिया गया है. पता नहीं इसमें किसका, कितना और क्या फायदा है क्योंकि जहाँ तक संघ को बचपन से लेकर आज तक मैं समझ पायी हूँ या फिर संघ का जो इतिहास है या फिर संघ जिन मूल्यों और आदर्शों को मानता है, मानता ही नहीं बल्कि उनका पालन भी करता है और उन पर चलता भी है तथा अपने इसी मूल्यों और आदर्शों के कारण वह कभी भी किसी भी कोण से किसी भी बुद्धिजीवी द्वारा, चिन्तक द्वारा या फिर समीक्षक द्वारा गलत साबित नहीं किया जा सका. ऐसे विचारवादी संगठन के प्रमुख के बयानों के कुछ अंशों का चीर-फाड़ करके भले ही कुछ राजनीतिक दल या फिर मीडिया के लोग उसे भुनाने की कोशिश करें परन्तु इससे संघ के विचारों की नींव खोखली नहीं हो जाती है.
इससे पहले कि मोहन भगवत जी के बयान पर किसी प्रकार की टिपण्णी मैं करूँ, एक बार पुनः उनके बयान को मैं उद्दघृत करना चाहूंगी “रेप की घटनाएं भारत में कम इंडिया में ज्यादा होती हैं, क्योंकि वहां विदेशी सभ्यता का असर ज्यादा दिखाई देता है, आप देश के गांवों और जंगलों में देखें जहां कोई सामूहिक बलात्कार या यौन अपराध की घटनाएं नहीं होतीं. यह शहरी इलाकों में होते हैं. महिलाओं के प्रति व्यवहार भारतीय परंपरागत मूल्यों के आधार पर होना चाहिए.”यदि आंकड़ों की बात करें तो निश्चित रूप से संघ प्रमुख सिरे से ही गलत हैं इसमें कोई दो राय नहीं परन्तु बयान के पीछे छुपी भावनाओं को यदि गहराई से समझें तो उसमें संघ की अपनी विचारधारा जिसे दूसरे शब्दों में भारतीय मूल्यों पर टिकी विचारधारा भी कह सकते हैं मिल जाएगी. क्योंकि जब कभी भी भारत के साथ इंडिया का नाम जुड़कर सामने आता है तो पता नहीं क्यों वह गुलामी की यादों के जख्म को कुरेद जाता है.
कोई भी देश कितनी भी तरक्की कर ले परन्तु उसके अपने मूल्य, उसकी अपनी सांस्कृतिक विरासत, उसके अपने आदर्श उसकी हमेशा एक धरोहर होतीं हैं और ये सब उसकी एक पहचान होती है. आज भी हम विदेशों में बहुत हद तक अपनी इसी धरोहर के नाते जाने जाते हैं. शायद ही पूरे विश्व में ऐसा कोई मुल्क हो जहाँ स्त्री को देवी स्वरूप पूजा जाता हो परन्तु हम उसे कहीं दुर्गा, कहीं काली, कहीं सीता तो कहीं लक्ष्मी आदि नाम से पूजते हैं. अपवाद स्वरुप चंद लोगों की हैवानियत के कारण संघ प्रमुख के इस कथन को कि महिलाओं के प्रति व्यवहार भारतीय परंपरागत मूल्यों के आधार पर होना चाहिए, को हम नकार तो नहीं देंगे.
बयानों पर बखेड़ा करने वालों को एक बात पर अवश्य गौर करना चाहिए कि बयान किसने, कब, कहाँ और क्यों दिया है. भले ही आज भाजपा के दिग्गजों के साथ ही कुछ पूर्व कांग्रेसी और अन्य दलों के नेता भी इसी संघ का हिस्सा रहे हों इसके बावजूद ना तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ना तो कोई राजनीतिक दल है और ना ही मोहन भागवत कोई राजनीतिज्ञ हैं कि वे किसी संसद या किसी विधान मंडल में बैठते हों. अतः उनके बयानों को टूल देकर कौन क्या साबित करना चाहता है यह समझ से परे है. हो सकता है संघ प्रमुख के बयानों पर बहस से किसी चैनल की रेटिंग बढ़ जाए या फिर जिन लोगों को दाग-धब्बे पसंद हैं उनको थोडा सा और कीचड उछालने का मौका मिल जाए और साथ ही कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों की बांछें खिल जाएँ परन्तु सत्य तो यही है कि स्वतंत्र भारत की आधारशिला तैयार करने से लेकर आज तक संघ परिवार की सोच और उसकी कार्यशैली हमेशा कसौटियों पर खरी उतरती है.
अब अगर बात करें कि भारत और इंडिया को दो भागों में विभाजित कर मोहन भागवत क्या कहना चाहते हैं? तो शायद इसका उत्तर यही होगा कि आज़ादी की लडाई लड़ने वालों ने जो सपने देखे थे आज़ादी के सातवें दशक की ओर अग्रसर होते हुए भी कोरे सपने ही प्रतीत हो रहे हैं और संभवतः यहाँ पर संघ प्रमुख भी एक आम भारतीय की तरह ही सोच रहे हैं. इसलिए आज के भारत की दशा और दुर्दशा इस विषय पर जितना कुछ भी लिखा जाये कम ही होगा क्योंकि सच तो यही है कि हम आजाद भारत का स्व-तंत्र वास्तव में आज तक नहीं बना सके हैं. पर हाँ जहाँ तक बात मनो विकारों की है तो उसके लिए पूर्वी या पश्चिमी पहनावे को दोष देना उचित नहीं है.
बातें तो शायद कभी ख़त्म नहीं होंगी परन्तु जिस प्रकार बोलने एवं लिखने में हम हमेशा भाषाई नियंत्रण को तरजीह देते हैं मेरी राय में उसी प्रकार किसी के बोल और किसी की लेखनी को समझने और उस पर प्रतिक्रिया देने के पूर्व भी हमें कुछ उसी नियंत्रण को साथ लेकर चलना होगा. दिल्ली की घटना एक ह्रदय विदारक घटना है, उसमें हुयी नृशंसता की जितनी भी निंदा की जाए कम है. इस घटना को लेकर हर व्यक्ति शोकाकुल होने के साथ ही आवेशित और आक्रोशित भी है. सभी चाहते हैं कि कुछ बेहतर परिणाम निकले और शायद इसी क्रम में कुछ लोगों के शब्द गडबडझाले में उलझकर रह जाते हैं.
इसलिएमहत्वपूर्ण यह नहीं है कि किसने क्या बयान दिया बल्कि महत्वपूर्ण तो यह है कि हम इस व्यवस्था को कैसे सुधार पाएंगे.
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