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डबडबाई आँखें

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हसरत मोहानी की मशहूर पंक्तियाँ हैं “चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है……….”


आज भी रोजाना जब कभी अख़बार उठाकर देखती हूँ, किसी ना किसी पन्ने पर दिल्ली की वही हैवानियत कभी किसी और नाम से तो कभी किसी और शहर या गाँव में दोहराती हुयी मिल ही जाती है. क्या यह दुर्भाग्य है उन लड़कियों का जो उनकी ख़बरें दो-चार पंक्तियों में सिमट कर रह जाती हैं या फिर अक्षमता है हमारी और हमारे समाज की जो इतने जन आक्रोश के पश्चात भी परिणाम को वहीं शून्य पर छोड़ आये हैं..ना कोई हो-हल्ला ना कोई शोर शराबा भ्रष्टाचार की तरह ही बलात्कार को भी कहीं आम घटना तो नहीं मानने लग जायेंगे लोग और कहेंगे कि सब चलता है और फिर भूलकर उस घटना को किसी और बड़ी घटना पर अपना आक्रोश व्यक्त करने हाथों में मोमबत्ती लिए इकठ्ठा होंगे.. हो सकता है आने वाले समय में कुछ कड़े क़ानून बन जाएँ, हो सकता है दो-चार को फाँसी पर भी चढा दिया जाये पर क्या उससे उन आँसुओं को उनका उत्तर मिल पायेगा जो पूरी जिंदगी के लिए एक साये की तरह साथ-साथ जब तब छलकती रहेगी.

अंग्रेजी में मैंने कहीं पढ़ा था कि –

“Perhaps our eyes need to be washed by our tears once in a while, so that we can see life with a clear view again”.

वर्ष 2012 जाते जाते देश में एक ऐसी ह्रदय विदारक घटना को अंजाम दे गया जिसने ना जाने कितने लोगों की आँखों को नम करते हुए आँसुओं की बूंदों का सैलाब ही ला दिया. महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी एक रचना में लिखा है कि नारी के आँसू अपने एक एक बूँद में एक एक बाढ़ लिए होते हैं पर गत माह यहाँ तो ना जाने कितनी बूँदें छल-छलायीं ही नहीं बल्कि जब जब घटना का जिक्र हुआ उसने रोने पर मजबूर कर दिया. सदियों से अकसर ऐसी वारदातें समाज में अचानक से घटित हो जातीं हैं जो सोचने पर मजबूर करतीं हैं. भले ही यह कहा जाए कि आत्मा तो अजर अमर होती है, मिटता इंसानी शरीर है परन्तु “दामिनी” की मौत ने उस अजर अमर आत्मा को भी एक बार मरने पर मजबूर कर दिया. यह मौत केवल एक “दामिनी” की ही नहीं थी बल्कि भावनाओं की ऊँची उड़ानों के साथ सपना देखने वाली ना जाने कितने लोगों की भावनाओं की भी थी जो उन्हें उनकी आकंक्षाओं और आशाओं से कोसों दूर लेकर चली गयी.

जिंदगी को हर बार नए नजरिये से देखने और समझने के लिए और धुंधलाती परतों को हटाने के लिए पता नहीं कितनी बार और किन किन कारणों से आँखें डबडबायेंगी. शायद ऐसी ही पीडाओं को अनुभूत कर महात्मा बुद्ध ने कहा होगा कि सात सागरों में जल की अपेक्षा मानव के नेत्रों से कहीं अधिक आँसू बह चुके हैं.

ऐसी घटनाएँ शयद यही सन्देश देतीं हैं कि जीवन में हर घडी हर समय हम सबकी परीक्षायें चलती रहती है इन परीक्षाओं में कब और कहाँ से प्रश्न पूछ लिए जाएँ किसी को भी इसका भान नहीं होता है. बचपन में तो स्कूल में पढते समय हमें अपना पाठ्यक्रम और प्रश्नपत्र का स्वरुप ज्ञात रहता था और परीक्षा की तिथि और समय भी निर्धारित होते थे, पर जीवन में आये दिन होने वाली परीक्षाएं और उनमें पूछे जाने वाले ऐसे प्रश्नों का हल या हल करने का तरीका शायद कोई नहीं बता सकता. इन सबका जवाब हमें स्वयं ही ढूँढना होगा.

पर सवाल वही है कि –

क्या हजारों लाखों की संख्या में नम आँखें इन प्रश्नों का हल ढूंढ पाने में सक्षम हो पाएंगी?
जिन लोगों से उत्तर मिलने की उम्मीदें हैं वे क्या समय रहते इनका माकूल जवाब दे पाएंगे?
हम व्यवस्था परिवर्तन की लंबी चौड़ी बातें करते हैं, क्या नम आँखों से बदलाव की आशा जगेगी?
श्रद्धांजलि देने के लिए मोमबत्तियाँ जलाते हैं, क्या उन मोमबत्तियों की रौशनी से अँधेरा दूर हो सकेगा?
आक्रोश में तोड़फोड़ कर बैठते हैं और जोशीले नारे लगते हैं पर क्या नारों के बीच से न्याय की बात निकल पायेगी?
कहने को तो आज से एक नए वर्ष की शुरुआत हो चुकी है पर क्या कुछ नयेपन की आहट सुनायी दे रही है, क्या कहीं इसकी सुगबुगाहट महसूस हो रही है?


इससे पहले कि हम सब फिर से भूल जाने के शिकार हो जाएँ और शिकारी नए शिकार करने निकल पड़ें आइये सब मिलकर ढूंढते हैं इन प्रश्नों और उन आँसुओं के उत्तर को बस इसी नए वर्ष में.

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