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जवाब देती सहनशीलता

WHO WE ARE
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दिल्ली में चलती बस में सामूहिक बलात्कार के बाद से देश के आम आदमी की आत्मा चीत्कार उठी है, बिना किसी अगुआई के हजारों की संख्या में लोग आक्रोशित होकर न्यायिक और क़ानून व्यवस्थाओं के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि दिल्ली में घटित इस घटना में कोई नयापन हो क्योंकि रोजाना ऐसी घटनाएँ अखबार के एक कोने में मिल ही जातीं हैं परन्तु देश की राजधानी में घटित होने वाली घटनाएँ देश के लिए आईने के सामान होती हैं. विश्व की सबसे शक्तिशाली महिलाओं में गिनी जाने वाली कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने भी हरियाणा में आये दिन होने वाले बलात्कारों पर अपनी प्रतिक्रिया में यही कहा था कि ऐसी घटनाएँ पूरे देश में होती रहती हैं. घटना के उपरान्त यह मीडिया की ही देन कही जायेगी कि इस घटना की गूँज संसद में भी सुनायी दे गयी. यही नहीं लोगों ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के राजनीतिक आंसुओं को भी दूरदर्शन पर देखा और साथ ही राजपथ पर प्रदर्शन कर रहे लोगों को खदेड़ने के लिए पुलिस बल के साहस को भी परखा. इस घटना पर दिल्ली के साथ ही पूरे देश में जिस प्रकार से लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दी और जिस तरह से दिल्ली की सड़कों पर लोग उतरे, उसने पिछले वर्ष और इस वर्ष योग गुरु स्वामी रामदेव के काले धन के खिलाफ आन्दोलन तथा अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल के लिए होने वाले आन्दोलनों में उमड़े जन सैलाब की याद दिला दी. सत्ताओं पर आसीन लोगों को अब यह समझ लेना चाहिए कि गत आन्दोलनों को भीड़ कहकर उन्होंने कितनी बड़ी गलती की थी, क्योंकि ना तो यहाँ भारत स्वाभिमान के बैनर तले स्वामी रामदेव और उनके समर्थक हैं और ना ही इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अन्ना हजारे हैं.

स्वतः स्फूर्त होकर उमड़ते जन सैलाब और लोगों का आक्रोश देखकर यह तो तय है कि आम भारतीय लुंज पुंज कानून के कारण दिनोदिन बढती कुव्यवस्थाओं से बुरी तरह तंग आ चुका है और उसकी सहनशीलता जवाब दे रही है. आज भले ही वह किन्हीं कारणों से अपनी इस लड़ाई को लम्बी पारी में नहीं बदल पा रहा है पर वह दिन दूर नहीं है जब सत्ताओं में बैठे लोगों को इसका अहसास भी हो जाएगा कि जनता भी लम्बी पारी खेल सकती है और केवल वोट की राजनीति अब नहीं चलने वाली. शायद वक़्त आ गया है कि हमारे नेता अपनी आँखों से जनता को केवल वोट की तरह देखने वाला अपना राजनीतिक चश्मा उतार लें और आम भारतीय की सोच और समझ को ध्यान में रखते हुए अपने निर्णयों पर गौर करें. दिलासा और बयानबाजी राजनीति के दांव-पेचों को नहीं समझ पाने वाले लोगों को बहलाने और फुसलाने का एक तरीका मात्र हो सकता है परन्तु किसी समस्या का समाधान नहीं. गृह मंत्री का यह कहना कि मामले में न्यायिक आयोग बनाया जाएगा भारत की न्यायिक प्रक्रिया को आइना दिखाने के लिए पर्याप्त है.

देश की आम जनता को आज कई दिशाओं में तीव्र गति से बड़े परिवर्तनों की आवश्यकता महसूस हो रही है परन्तु ना जाने किन कारणों से सरकार द्वारा जानबूझकर ऐसे परिवर्तनों के प्रति जनता को हमेशा केवल भरोसा और दिलासा ही मिल पा रहे हैं. माना कि बड़े परिवर्तनों में समय लगता है, जैसे कि यदि चारित्रिक निर्माण की बात करें तो मुझे लगता है कि निरंतर कोशिश के बाद भी सौ वर्ष लग सकते हैं परन्तु यकीं मानिए जिन परिवर्तनों को दिनों में किया जा सकता है उन पर पहल नहीं होना वास्तव में अफसोसजनक है. ऐसा नहीं कि ऐसे परिवर्तनों के लिए बहुत ज्यादा प्रयास की आवश्यकता है. बस सोच को पैदा करने की जरुरत है.

उदाहरण के लिए अपनी प्रेस कांफ्रेंस में गृह मंत्री ने अपने और सूचना प्रसारण मंत्री के घरों में भी बेटियां होने और कुछ पुलिस वालों को निलंबित करने की बातें कहीं. पर क्या उनके और और आम आदमी के लिए उत्पन्न परिस्थितियों की आपस में कोई तुलना की जा सकती है. ऐसा सोचना भी हास्यास्पद है. हजारों की संख्या में लोग केवल अपनी बात को अपने नेता तक पहुँचाने के लिए पता नहीं कितने आंसुओं के गोले, पानी की बौछार और पुलिस के डंडे सहते हैं फिर उनकी और आम आदमी की क्या तुलना. देश की जनता आये दिन कभी  बलात्कार और लूट की  घटनाओं से त्रस्त होती है तो कभी शिक्षा और चिकित्सा जैसी बुनियादी  सुविधाओं  के  लिए भटकती है. ऐसी घटनाओं से निजात पाने के लिए है एक  उपाय पर शायद माननीयों को रास ही नहीं आएगा. हमारे टैक्स के पैसों से उनकी और उनके परिवार की सुरक्षा तो सुनिश्चित हो जाती है और हम रोते हैं अव्यवस्थाओं पर.

काश यदि  देश  के नेता और उनके परिवार वाले  भी आम  लोगों की तरह  बिना  सुरक्षा के  रेलगाड़ी के साधारण दर्जों और  बसों में यात्रा करें, सरकारी अस्पतालों  में  अपनी  बारी आने का इन्तजार करते हुए अपना इलाज कराएं, उनके  बच्चे भी  सरकारी  विद्यालयों में शिक्षा  ग्रहण करने लग जाएँ, न्याय पाने के लिए कोर्ट कचहरी के चक्कर लगायें तो  जिन अव्यवस्थाओं का  रोना हम  आये दिन रोते हैं चुटकी बजाते सुधर जायेंगी. पर  क्या हमारे  नेतागण तैयार हैं इसके लिए. आधी से ज्यादा पुलिस बल तो इनके और इनके परिवार की सुरक्षा में तैनात रहती है और तो और जब ये अपने लिए हमसे वोट भी मांगने आते हैं तो भी कमांडो से ही घिरे रहते हैं. सड़क पर यदि इनका काफिला गुजरने वाला हो तो बाकी यातायात स्थगित कर दिया जाता है. क्यों? क्योंकि उनको भी पता है कि वर्तमान व्यवस्थाएं चाक चौबंद नहीं हैं. दो-दो तीन-तीन लेयरों, जेड और जेड प्लस जैसी सुरक्षा घेरों में रहने वाले कहाँ ये नेता और उनके परिवार के लोग और कहाँ हाड कंपकपाती ठण्ड में रैन बसेरों की और हसरत भरी निगाह से देखता एक आम आदमी, कहीं कोई मेल ही नहीं है.

लेकिन अब सहनशीलता जवाब दे रही है और यही कारण है कि बिना किसी आह्वाहन और आन्दोलन के इतनी बड़ी संख्या में इस भयंकर कोहरे और ठंढ में भी पूरे देश में लोग एकजुटता के साथ चौपट हो चुकी व्यवस्थाओं के प्रति विरोध प्रदर्शन कर रहें हैं. यह नतीजा है कूड़े और कचरे का ढेर इकठ्ठा करने का, एक जरा सी चिंगारी या एक जरा सा ट्रिगर मिलते ही लोग उफन पड़ते हैं. हो सकता है काले धन और जनलोकपाल बिल की तरह ही इस बार भी जन आक्रोश की यह आग जल्दी ठंडी पड़ जाए लेकिन क्या सरकार किसी बड़े विस्फोट का इन्तजार करती रहेगी. ऐसा नहीं कि पिछले एक सप्ताह या उसके पहले ऐसे खौफनाक वाकये और नहीं हुए या हो रहे हैं लेकिन अबकी बार कौन सा वाकया चिंगारी या ट्रिगर का काम कर जायेगा कहना मुश्किल है. देश की जनता मूक-बधिर होकर केवल तमाशा नहीं देख सकती, यह बात जितनी जल्दी सरकार समझ ले उसके स्वयं के और साथ ही देश और देशवासियों के हित भी में होगा.

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