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शेष क्या बचेगा?

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देश विदेश की पत्र-पत्रिकाएं और संस्थायें समय-समय पर तरह-तरह के शोध और सर्वेक्षण करती और कराती रहतीं हैं और साथ ही साथ उसे प्रचारित और प्रसारित भी करती हैं,विषयवस्तु कुछ भी हो सकता है.सर्वेक्षण के लिए प्रत्येक विषयवस्तु को ध्यान में रखते हुए कुछ निश्चित मानदंड निर्धारित कर लिए जाते हैं. अभी हाल ही में ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल संस्था द्वारा भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक जारी किया गया. सर्वेक्षण कुल एक सौ छिहत्तर (176) देशों पर किया गया. सबसे कम भ्रष्ट या दूसरे शब्दों में ज्यादा ईमानदार देशों में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर डेनमार्क, फ़िनलैंड, न्यूजीलैंड जैसे देश शामिल थे. भारत का नाम खोजने पर वह शतक के नजदीक मिला और भ्रष्ट देशों की रैंकिंग में भारत को चौरानबेवां (94वां) स्थान हासिल हुआ.

http://cpi.transparency.org/cpi2012/results/


इस रिपोर्ट को जारी करते हुए संस्था ने लिखा है कि भ्रष्ट सरकारों पर लोगों के बढ़ते गुस्से ने पिछले साल कई नेताओं को पद से हटा दिया लेकिन बाद में पता चला कि रिश्वत, सत्ता का दुरुपयोग और गोपनीय व्यापार कई देशों में अभी भी बहुत ज्यादा हैं. पता नहीं संस्था के अनुसार यह कथन किस देश पर लागू होता है पर संस्था का यह बयान कम से कम भारत में तो लागू होता प्रतीत नहीं होता है क्योंकि यहाँ राज की नीति के नियम राजनीति के नियमों में अजीबोगरीब ढंग से घुले मिले रहते हैं. एक बार चुन लिए जाने के बाद किसी को पद से हटाना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है क्योंकि मौसेरे भाइयों की संख्या ज्यादा ही है.यह कुछ वैसे ही है जैसे सरकारी नौकरी पाना जितना मुश्किल है उससे कहीं ज्यादा एक बार सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद बाहर का रास्ता दिखाना. संस्था द्वारा जारी रैंकिंग में यद्यपि कुछ नियमों की वजह से भारत तरक्की करके अपने पूर्व स्थान से एक स्थान ऊपर की और खिसका हैतथापि इस उन्नति पर कितना गर्व किया जाए या फिर शर्म किया जाये इसमें कोई दुविधा नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता का स्तर तो सभी जानते हैं.

बात विदेशी शोध, सर्वेक्षण और रिपोर्ट की हो रही थी. कुछ समय पूर्व लंदन की मशहूर पत्रिका द इकोनॉमिस्ट द्वारा ने मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री बताया फिर बाद में राहुल गाँधी को कन्फ्यूज्ड नेता और एक समस्या घोषित कर दिया. पिछले सप्ताह ही इसी पत्रिका में छपे एक लेख के अनुसार अगर भारत का अगला चुनाव आर्थिक मुद्दों पर लड़ा जाता है तो कांग्रेस पी. चिदंबरम को भाजपा के नरेंद्र मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना सकती है. इन रिपोर्टों से किसी के चेहरे पर मुस्कान तो किसी के चेहरे पर खीज तो आनी ही थी और बाकी बचे लोग अपनी प्रतिक्रिया देकर निश्चिन्त हो जाते हैं. क्या है कि हम लोग गैर इरादतन ही सही लेकिन विदेशी भाषा, विदेशी विचारों, विदेशी तौर-तरीकों, विदेशी सामानों आदि से जबरदस्त तरीके से प्रभावित रहते हैं और विदेशी किराना मुद्दे को लेकर हुआ हंगामा भी इससे अछूता नहीं कहा जा सकता.

विदेशों की नजर में हमारे देश की स्थिति कैसी है इसका सेहरा हमारे नेताओं, उच्च पदों पर बैठे नौकरशाहों एवं बड़े व्यापारिक घरानो पर ही निर्भर करता है क्योंकि भारत के आम आदमी का ना तो इन मामलों में दखल देने का प्रावधान है, ना ही वह इन सबसे कोई ताल्लुक रखता है और ना हीरखना चाहता है और पता नहीं क्यों आधुनिक भारत का आम आदमी किसी तस्वीर को बदलने का साहस भी नहीं कर पा रहा है. वो तो बेचारा चंद लोगों द्वारा चलये जा रहे दुष्चक्रों के कारण इतने खण्डों में बंटा हुआ है कि कभी एक साथ जोड़कर अपने आपको देख भी नहीं पाता. उनमें कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई सिख तो कोई इसाई है. कोई सामान्य वर्ग का है, कोई पिछड़े वर्ग में आता है, कोई अनुसूचित जाति का है तो कोई अनुसूचित जन जाति का है. कोई मराठी है, कोई बिहारी है तो कोई गुजराती और कोई असमी है, कोई अल्पसंख्यक है तो कोई बहुसंख्यक. अब इन सबके बीच केवल भारतीय कितने हैं इसका भी एक सर्वेक्षण करना पड़ेगा या फिर सेलेक्ट आल का बटन ढूँढना पड़ेगा जो राजनीति के कारण खो सा गया है.

दरअसल यह सब कमाल है अंग्रेजी के एक शब्द ‘फ़िल्टर’ का. फ़िल्टर का हिंदी अनुवाद चलनी भी होता है और उपयोग आटे की चलनी की तरह ही किया जाता है.आंकड़ों का विश्लेषण करना हो या किसी आधार पर छंटाई करनी हो इसी चलनी नामक उपकरण का हार्डवेयर या सोफ्टवेयर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. सोफ्टवेयर के फ़िल्टर में लो पास, हाई पास और बैंड पास नाम से फ़िल्टर होते हैं कुछ वैसे ही जैसे यदि चोकर के साथ मोटा आटा चाहिए तो मोटी छेद वाली चलनी और महीन आटा चाहिए तो महीन छेद वाली चलनी.

इस चलनी को ऐसे भी समझ सकते हैं कि आगामी लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए अलग अलग कसुअतियों पर कभी नरेंद्र मोदी, कभी राहुल गांधी और कभी मुलायम सिंह आदिके नाम उछलते रहते हैं. द इकोनॉमिस्ट ने भी एक नाम उछाल दिया पी चिदंबरम का और चलनी लगाया आर्थिक मुद्दे का. पत्रिका की यही चलनी भारत के प्रति उसकी नासमझी को दर्शाने के लिए पर्याप्त है क्योंकि भारत में सभी चुनाव में जात-पात-धर्म की चलनी लगती है, कोई कुछ भी कह ले और आरक्षण एक बेहतरीन उदहारण है क्योंकि जो इससे बाहर थे उन्हें भी इसी में लाया जा रहा है और जो पहले से थे उनको पदोन्नत किया जा रहा है. पर हाँ पत्रिका के लेख का सार जानने के पश्चात मेरे मन में एक सवाल जरुर उठा कि क्या कभी देश के नाम की या फिर भ्रष्टाचार के नाम की भी चलनी भारत के चुनावों में लग पायेगी. सोचने वाली बात है कि अगर इस बार का चुनाव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी दल लड़ें तो फिर आम जनता के सामने क्या विकल्प होगा.

हैरत की बात है इस मुद्दे पर चलनी का छेद काफी बड़ा हो जाता है, पता नहीं शेष क्या बचेगा.

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