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विचारों का प्रतिनिधि

WHO WE ARE
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समाज में हो रही कुचेष्टाओं के कारणों में पर्दा भी एक प्रमुख कारण है. चाहे यह पर्दा किसी भी प्रकार का हो कभी चेहरे पर तो कभी दूसरों के कुकर्मों पर और कभी जानबूझकर आँखों पर. पर्दा शब्द फारसी भाषा से आया हुआ अरबी भाषा का शब्द है और शब्दार्थ है ढकना. आम तौर पर महिलाओं द्वारा घूंघट या बुर्के रूप में या फिर घरों के दरवाजों और खिडकियों पर इसका प्रयोग होता है परन्तु सबसे ज्यादा प्रयोग इसका हम अपनी आँखों और कानों में करते हैं. देखते हुए भी अनदेखापन यानि आँखों पर पर्दा, कभी जानबूझकर स्वयं डाल लेते हैं तो दूसरे इसे डाल देते हैं. इसी तरह सुनने के लिए कानों के परदे. वैसे तो कान अपना कार्य बखूबी जानते हैं कब एक से सुनकर दूसरे से बाहर निकालना है और कब दोनों से सुनकर भीतर ही रखना है और कब सुनकर भी अनसुना करना है यह हम अपनी मनमर्जी से करते हैं.

संसद में जब कभी भी बहस हो रही हो हमें अपनी आँखों और कानों के परदे को थोडा सरका कर रखना चाहिए क्योंकि राजनीति के ढोल नगाड़े पीटने वालों के असल चेहरे वहीँ नजर आते हैं. चुनाव पूर्व लम्बे चौड़े भाषण देने वाले नेता जी लोग चुनाव जीतने के पश्चात क्या कह सकते हैं और क्या करते हैं वहीँ से पता लगता है. हाल ही विदेशी किराना अर्थात एफडीआई यानि प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश के मामले पर पूरे देश ने अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिनिधियों को देखा भी, सुना भी और समझ भी चुके होंगे. इसके पहले भी जन लोकपाल बिल और काले धन जैसे मुद्दों पर इनको समझने का मौका मिला था लेकिन बाद में हमने अपनी सोच पर समय का पर्दा डाल लिया और धीरे धीरे याददाश्त भी धूमिल हो गयी.

परदे की बात करते करते मुझे मुंशी प्रेमचन्द जी की एक बहुचर्चित कहानी पर्दा की याद आ रही है जो हर ज़माने में और हर परिस्थियों में बहुत ही प्रासंगिक रही और मुझे लगता है कि जब तक हमारा यह समाज अपने आप में परिवर्तन नहीं लाएगा वह हमेशा प्रासंगिक ही रहेगी. पहले तो केवल समाचार पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से ही संसद की कार्यवाही की जानकारी मिल पाती थी जो समझ पर एक स्वनिर्मित परदे को बनाये रखती थीं परन्तु भला हो टेलीविजन का जिसने इस परदे को और झीना बनाने का काम किया. इस माध्यम से वहां की कार्यवाही और मौजूद लोगों की कारगुजारी देख-सुन कर दिमागी सोच पर पड़े पर्दों की कई परतें, परत दर परत हटती जाती हैं.

चाहे बातें करें उस आंधी की जो अन्ना के जन लोकपाल बिल के आन्दोलन के समय मशहूर हुयी थी या फिर बातें करें व्यवस्था परिवर्तन और काले धन के खिलाफ योग गुरु स्वामी रामदेव के आन्दोलन की, जिन्होंने योग के माध्यम से देशवासिओं को निरोग तन के साथ अन्तःमन जागृत कर राम और कृष्ण के वंशज होने के गौरव को याद दिलाया. इन दोनों आंदोलनों में दिल्ली में जुटी भीड़ ने वहां बैठी सत्ताओं के माथे पर शिकन और पसीने ला दिए थे परन्तु आन्दोलनों का हश्र क्या हुआ. शून्य? वैसे अगर सैद्धांतिक और व्यवहारिक दृष्टि से परखा जाये तो पूरी तरह शून्य कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि लोगों में थोड़ी जागरूकता तो आ ही गयी परन्तु राजनीतिज्ञों के कारण राजनीतिक दृष्टि में आम आदमी ढाक के तीन पात का मतलब समझ आ गया. स्पष्ट है भारत में राजनीति ही सबसे ऊपर और सबसे हावी रहती है.

आज जब भी भारतीय लोकतंत्र की बात होती है तो हम बड़े गर्व के साथ सीना फुलाकर सबसे बड़े लोकतंत्र होने की दुहाई देते हैं और आम आदमी के स्लोगन को कैश के साथ ही साथ क्रैश होते हुए भी देखते हैं. यद्यपि हमारे देश में प्राचीन काल से ही गौरवशाली लोकतंत्रीय परम्परा रही है जिसका हम गुमान भी कर सकते हैं और जिसके साक्ष्य प्राचीन साहित्य और अभिलेखों में उपलब्ध हैं और जिसकी परम्पराओं का जिक्र विदेशी यात्रियों और विद्वानों ने भी किया है परन्तु क्या लोकतंत्र में लोकतंत्र के सिद्धांतों का पालन होता है यह अपने आप में एक अनुत्तरित प्रश्न ही रहता है?

अक्सर एक बात जो लोकतंत्र और आम आदमी जैसे शब्दों से अनुनाद की तरह ध्वनित होती है वह है आम आदमी की शासन व्यवस्था. पर क्या वर्तमान शासन व्यवस्था में कहीं आम आदमी शेष है? जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता की’ वाली परिभाषा सिर्फ ख्यालों में बसने वाली और किताबों में लिखी जाने वाली परिभाषा बनकर रह गयी है. पता नहीं लोग क्यों कहते हैं कि आधुनिक लोकतंत्र के मूल विचार में जनता स्वयं शासन न करते हुए भी निर्वाचन पद्धति के द्वारा शासन को वैधानिक रीति से उत्तरदायित्वपूर्ण बना सकती है. पता नहीं कैसी कैसी गलतफहमियां लोगों ने पाल रखीं हैं.

विदेशी किराना पर देश के प्रमुख राजनितिक दल अपना पक्ष स्पष्ट कर चुके हैं और उनके प्रतिनिधि जिनको हमने चुनकर भेजा, इसके बहस को अंजाम भी दे चुके हैं. अब तो तय हो चुका है कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी कम्पनियाँ निवेश करने आएँगी ही, हमारा और आपका कोई वश नहीं है अब इस पर. पर क्या यह निर्णय पूरे देश के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है? सत्ता पक्ष भले ही इसे लोकतंत्र की जीत माने परन्तु मेरी समझ से भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक दुखद और अफसोसजनक घटना कही जानी चाहिए क्योंकि इस मुद्दे पर लोकसभा में वोटिंग के दौरान मात्र चार सौ इकहत्तर सांसदों ने भाग लिया जिसमें दो सौ तिरपन ही इसके पक्ष में थे यानि आधे से कहीं कम. स्पष्ट है यह पूरे देश की आवाज़ नहीं है.

अपनी ही राजनीति को लेकर कन्फ्यूज्ड सपा और बसपा का यह तर्क कि असहमति के बावजूद उन्होंने कांग्रेस का साथ इसलिए दिया क्योंकि विदेशी किराना राज्यों पर थोपा नहीं जायेगा और साथ ही वे साम्प्रदायिक शक्तियों का साथ नहीं देना चाहती पूरी तरह से बरगलाने वाला और अफसोसजनक भी है. क्योंकि प्रथम तो यह मुद्दा केवल किसी प्रदेश का नहीं बल्कि पूरे देश से का है और द्वितीय यह किसी सम्प्रदाय के लिए नहीं बल्कि देशी और विदेशी के बीच की जंग है. अगर मैं यह कहूं कि इससे यह स्पष्ट है कि इन दलों के नेता मुलायम सिह जी और मायावती जी को केवल प्रदेश के लिए ही राजनीति करनी है तो उन्हें दिल्ली में संसद की बजाय लखनऊ के विधानसभा तक ही सीमित रहना चाहिए था तो फिर इसमें गलत क्या है. क्योंकि सभी जानते हैं कि संसद में पूरे देश की बात होती है ना कि केवल किसी प्रदेश की, अगर विदेशी किराना प्रदेश के लिए उन्हें स्वीकार्य नहीं था तो फिर देश के लिए कैसे? निश्चित ही तर्क अटपटा था.

सौ की सीधी एक बात, इतना तो सब समझते हैं कि कोई भी निवेशक क्यों निवेश करेगा, जाहिर है वह अपने लाभ के लिए ही निवेश करेगा और यदि निवेशक विदेशी होगा तो उसके  निवेश का सीधा अर्थ है कि लाभांश विदेशों में जाएगा. इसलिए सरकार  को स्वयं की व्यवस्थाएं सुधारने पर जोर देना चाहिए था लेकिन प्रयास कौन करे. लिहाजा फायदा विदेशी कंपनियों को ही सही. सुबह उठकर साबुन, शैम्पू, तेल, मंजन और क्रीम का इस्तेमाल करके ही पता नहीं कितना पैसा विदेश में भेज रहे थे अब तो विदेशी किराना भी आ जायेगा. काश शीर्ष पर बैठे लोग केवल इतना समझ लेते कि अगर हम अपनी मदद स्वयं नहीं कर सकते तो बाहर वाला कभी हम्रारी मदद नहीं कर पायेगा. जागने का वक्त आ गया है यदि अब भी नहीं जागे तो जान बूझकर अपनी और अगली कई पीढ़ीयों के गुनहगार बन जायेंगे, इसलिए जो हम देशवासिओं के विचारों का प्रतिनिधि हो सिर्फ उसका साथ दें.

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