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किर्केगार्द की एक पंक्ति याद आ रही है कि शोक मनाने के लिये नैतिक साहस चाहिए और आनंद मनाने के लिए धार्मिक साहस. एक तरफ जहाँ अनिष्ट की आशंका करना भी साहस का काम है तो वहीँ दूसरी तरफ शुभ की आशा करना भी साहस का ही काम है परंतु इन दोनों प्रकार के साहसों में जमीन आसमान का अंतर होता है. जो साहस किसी अनिष्ट की आशंका के साथ जुड़ा होता है उसे गर्वीला साहस कहते हैं जबकि शुभ की आशा के साथ जिस साहस का जिक्र होता है वह विनीत साहस कहलाता है. वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में आतंकवादी कसाब की फांसी का निर्णय धर्म और अधर्म में छिड़ी जंग में धर्म के जीत की पहली पायदान थी अतः यह जीत ही अपने आप में साहस देने वाली थी और जब खबर आयी कि फाँसी हो चुकी है तो वह जीत की मंजिल थी जिससे हर भारतीय को सुकून मिला. और जब आपको सुकून मिलता है तो खुशी तो बरबस छलक ही जाती है जिसे अपने आप को तथाकथित सभ्य समाज के मानवतावादी कहने वालों ने ने जश्न का नाम दे दिया. यह कतई जश्न नहीं था बल्कि चैन और अमन की नींद में खलल डालने वाले को उसके अंजाम तक पहुँचाने के बाद राहत वाली सांस थी.
फाँसी के कारण कसाब की इस तथाकथित मृत्यु पर तथाकथित जश्न मनाने की बातें और उस जश्न के प्रति विरोधात्मक स्वर, ये सारी बातें अपने आप में अत्यंत ही अद्भुत, आश्चर्यजनक और विचित्र भी हैं. जिसे जश्न कहा जा रहा है प्रथम तो वह किसी आम इंसान की स्वाभाविक मृत्यु पर मनाया गया जश्न नहीं था, द्वितीय ऐसा करना हम भारतीयों की फितरत में ही नहीं है क्योंकि हम भारतीयों की मानसिकता ही ऐसी नहीं है और तृतीय यह जश्न सही मायने में उस निर्णय पर था जो निर्णय किन्हीं राजनीतिक कारणों से पहले नहीं लिया जा सका. साथ ही यह राहत का इजहार था, एक आंतंकवादी जिसे हमारे शास्त्रों में राक्षस की संज्ञा दी गयी है, उसकी मृत्यु पर. यह राहत ठीक वैसा ही था जैसा कि हमारे शास्त्रों में वर्णित है. सतयुग, द्वापर, त्रेता सभी सभी युगों में जब कभी भी राक्षसी प्रवृत्तियों वालों से आम लोगों का रहन-सहन प्रभावित होता था और शुभ कार्यों में विघ्न उत्पन्न होता था तब समय-समय पर ऐसी प्रवृत्तियों और ऐसी प्रवृत्ति रखने वाले लोगों के विनाश को उल्लेख है. किसी ना किसी रूप में देवी देवता आम जन को बचाने के लिए ऐसे समय पर अवतरित होते थे और साथ ही दुष्टों का संहार करने के लिए अस्त्र और शस्त्र का उपयोग भी करते थे. परन्तु अब तो हर जगह राजनीति हावी है और सब कुछ राजनीति पर ही निर्भर करता है. कसाब की फाँसी के मौके पर विरोधियों द्वारा यह कथन कि भगवान राम जिन्होंने रावण जैसे असुर को मुक्ति प्रदान की उन्होंने भी इस संहार पर जश्न नहीं मनाया एवं उनकी आंखों में भी आंसू थे, पूर्णतया हास्यास्पद है क्योंकि रावण की आसुरी प्रवृत्ति भिन्न प्रकार की थी जिसकी तुलना कसाब जैसे आतंकवादियों से करना बुद्धिहीनता का द्योतक है. पर फिर भी यदि इसे एक बार को ठीक मान भी लिया जाये तो यक़ीनन हम सब भी ऐसे खुशी के आंसू अपनी आँखों में लेन के लिए बेताब हैं और वह तब आ सकेगी जब विश्व से आंतंक समाप्त हो जायेगा और एक बार पुनः राम राज्य स्थापित होगा. इतना सब कुछ होने के बाद भी क्या कोई सुरक्षित होने का दावा कर सकता है? शायद नहीं.
यहाँ एक बात और है कि कसाब की फांसी पर ख़ुशी के इजहार का विरोध कर रहे लोगों ने संभवतः रामायण उसी प्रकार पढ़ा होगा जैसे कि आमतौर पर घरों में चौबीस घंटे में अखंड रामायण का पाठ कर उसे समाप्त कर दिया जाता है. क्या पढ़ा गया था – राम चरित मानस. क्या लिखा था – अलग-अलग कांडों में दोहे, चौपाइयां, छंद और सोरठे थे. क्या सीखे – ? दरअसल किसी भी धार्मिक ग्रन्थ के सार को समझने के लिए उसकी गहराई में उतरना होता है. रामायण और गीता हमारे ऐसे ग्रन्थ हैं जो हमें जीवन को जीने के लिए एक निश्चित दिशा निर्देश देते हैं. ये धर्म ग्रन्थ धार्मिक होने के साथ ही हमारे मार्गदर्शक और दिग्दर्शक भी हैं और इनमें वर्णित एक-एक छंद, चौपाई, दोहे सभी जीवन के कानून का पालन करने और करवाने के लिए कानून की एक धाराओं की तरह उपयोग की जा सकती हैं. ये दोनों ग्रन्थ स्पष्ट सन्देश देते हैं कि बिना कारण किसी को दंड नहीं देना चाहिये परन्तु प्रजा की रक्षा करने के लिए पापी को अवश्य दण्डित करना चाहिए और जब प्रजा भयमुक्त होगी तो वह ख़ुशी से नाचेगी भी और गाएगी भी.
बेशक कसाब भी हाड़-मांस से बना एक इंसान था और हम सब भी मात्र इंसान ही हैं और इसीलिए इंसानियत के नाते इससे ज्यादा हम कुछ कर नहीं पाए. हो सकता है यह राजनीति नहीं बल्कि इंसानियत का ही तकाजा हो जिसकी वजह से अफजल गुरु जैसों की बारी नहीं आ रही है परन्तु इन सबके बीच एक कटु और यथार्थ सत्य यह भी है कि ऐसे देश में जहाँ बत्तीस रुपये प्रतिदिन से गरीबी के पैमाने को तय किया जाता है वहीं कसाब जैसों पर प्रतिदन तीन से साढ़े तीन लाख खर्च किये जा रहे थे. और अब जब एक निर्णय से हर दिन लाखों रुपये बचाए जा रहे हों तो मेरे ख्याल से वह भी जश्न मानाने के लिए एक कारक हो सकता है. कसाब की मृत्यु का जश्न एक प्रकार से हमारी तमाम संस्थाओं द्वारा देर से ही सही परन्तु उचित निर्णयों के जश्न को प्रदर्शित करती हैं ना कि व्यक्तिगत जश्न को.
चलते-चलते एक बात और, यह हमारी सांस्कृतिक और अध्यात्मिक विरासत ही है कि आज भी राह चलते भी यदि किसी अंजान की शव यात्रा दिख जाये तो आँखें मूंदकर दिवंगत को हम अवश्य प्रणाम करते हैं और साथ ही उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना भी करते हैं भले ही शव यात्रा किसी वृद्ध की हो और गाजे बाजे के साथ निकल रही हो.
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