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जो है वही तो बांटेंगे – Jagran Junction Forum

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जिसके पास जो होता है, वह वही बांटता है. रोगी व्यक्ति रोग बांटता है, अहंकारी अहंकार बांटता है, दुखी व्यक्ति दुःख बांटता है, भ्रमित भ्रम बांटता है, ज्ञानी ज्ञान और अज्ञानी अज्ञान को बांटता है. इसी तर्ज पर कांग्रेस अध्यक्षा और प्रधानमन्त्री महोदय ने मंत्रिमंडल में फेरबदलकर एक बार फिर से मंत्रालयों का भी बंटवारा कर दिया है. बंटवारे के बाद पुनः प्रश्न वही है कि यदि इन बंटवारों से कुछ हासिल हो सकता था तो यह बंटवारा पहले यानि पिछले तीन वर्षों में क्यों नहीं किया गया. उत्तर कोई कुछ भी दे परन्तु निर्विवाद उत्तर भी वही है कि सत्ताओं के पास शक्तियां, सामर्थ्य और ऐश्वर्य हैं जो वे समय समय पर अपने अति वफादारों में बांटते रहते हैं. वफादारी वास्तव में है तो बड़े काम की चीज और कम से कम इसमें तो किसी को संदेह भी नहीं होना चाहिए. हर ज़माने में लोगों को इसका भरपूर ईनाम मिला है. पहले राजा-महाराजाओं के पास इतनी धन दौलत होती थी कि जब वे अपने वफादार से खुश होते थे तो राज दरबार में अपने गले से अपना बेशकीमती हार ईनाम में बाँट देते थे, सैनिक को सेनापति और मंत्री को महामंत्री बना दिया करते थे. इसी प्रकार से घर की सुरक्षा में लगे चौकीदार की बात करें या फिर सेवा में लगे सेवाकार की बात करें अगर उसने ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के साथ आवंटित कार्य का निर्वहन किया है तो निश्चित तौर पर वह ईनाम का हकदार भी है.

अब ज़माने के साथ बहुत कुछ बदल गया है, राजाओं की जगह राज करने वाले नेताओं ने ले ली है. देखा जाए तो बस शब्दों की थोड़ी हेराफेरी ही हुयी है परन्तु कार्य की शैली बल्कि उनके हनक पहले से कई मायनों में बढ़ ही गए हैं. हाथियों और बग्घियों की जगह बुलेटप्रूफ गाड़ियों ने ले ली है और सिपाहियों की जगह ब्लैक कमांडो ने. लेकिन राजा जो कुछ करता था अपने साथ साथ अपने राज्य के भले के लिए भी करता था पर राज करने के लिए राजनीति करने वाले हमारे नेतागण की नजर बस कुर्सी पर रहती है. स्पष्ट है कि जिसके पास सत्ता होती है वह उसका उपयोग, सदुपयोग, दुरुपयोग सब कर सकता है और इन सबसे देश का कितना भला होगा या होता है सभी जानते हैं. विशेष तौर पर जब कोई सरकार अपने तीन वर्ष पूरी कर चुकी हो और उसके बाद उसको इस प्रकार के परिवर्तन की याद आये तो उसके मुखियाओं की सोच पर संदेह गहराता है.

अपने कृत्यों को देश हित और लोक हित नाम के शब्दों का मुखौटा पहनाकर जनता के सामने पेश कर देने भर से देश का हित अगर हो सकता तो रोज इन बातों से उपन्यास भर रहे होते. कांग्रेसी प्रवक्ता मंत्रिमंडल में किये जाने वाले इस बदलाव के पीछे कोई भी तर्क या कुतर्क दें बात गले नहीं उतरती क्योंकि जो कुछ भी निर्णय लिया गया उसका जब तक सकारात्मक असर नजर नहीं आएगा संदेह बरकरार ही रहेगा. इस संदेह का पुख्ता कारण भी है, आज राजनीति करते करते लोग केवल राज धर्म को याद रखे हुए हैं और कर्तव्य परायणता एवं धर्मपरायणता जैसे शब्दों के अर्थों को वे अपने राजनीतिक दल के मुखिया के लिए ही इस्तेमाल करते हैं. साथ ही तुर्रा यही रहता है कि यह सब कुछ देश हित में किया जा रहा है. जब आवश्यकता पड़े तो देश हित के जुमले के साथ ऐसे राजनीतिक दल जो एक दूसरे को फूटी आँख भी देखना पसंद नहीं करते, गलबहियां करते हैं, दूसरा और तीसरा मोर्चा खोल लेते हैं, नए दलों का सृजन कर लेते हैं. लोकतंत्र को लोकतंत्र या जनतंत्र नहीं बल्कि एक मजाकतंत्र बना कर रख दिया है राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों ने.

यद्यपि बड़े-बूढ़ों और गुरुओं ने सिखाया है कि मनुष्य को सोच हमेशा सकारात्मक रखनी चाहिए तथापि जब देश हित की लंबी चौड़ी बातें सुनकर कान पक चुके हों तो सब सिखा सिखाया भूलने लगता है. सरकार को यदि कोई सन्देश देशवासियों को देना ही था तो उअसके पास कई मौके थे. थे नहीं बल्कि हैं, क्योंकि आज प्रत्येक भारतीय चिंतित है विदेशों में जमा काले धन की वापसी को लेकर, जन लोकपाल बिल को लेक. पर ऐसे अहम और अति महतवपूर्ण मुद्दों पर बारबार ठेंगा दिखने वाली सरकार इन मुद्दों पर चुप्पी साध चुकी है या केवल बहलाने और फुसलाने में लगी है. परन्तु शायद उसे नहीं पता कि ऐसे अहम मुद्दे पर इस सरकार की मानसिकता को बारीकी से जनता परख रही है. वर्तमान भारतीय परिदृश्य मंत्रालयों के बंटवारों से ज्यादा जरुरी ये मुद्दे थे जिस पर जानबूझकर इस सरकार द्वारा कोई सार्थक प्रयास नहीं किया जा रहा है और इस सरकार का यही दृष्टिकोण उसकी नीयत को परिभाषित करने के लिए पर्याप्त है.

वैसे कांग्रेस में वफादारी का ईनाम हमेशा से उम्दा मिलता रहा है जिसके उदाहरण कुछेक राष्ट्रपति तक हैं और राज्यपालों की तो कोई गिनती ही नहीं है. आज जब कांग्रेस के लोग अपने नेता के लिए ही नहीं बल्कि उनके अध्यक्षा के दामाद पर भी उँगली उठने पर जान दे देने की बात करते हैं तो वे भला ऐसे कांग्रेसी ईनाम के हकदार क्यों नहीं होंगे, इतनी श्रद्धा तो भगवान में भी नहीं होती. इसलिए मंत्रिमंडल के फेरबदल को बहस के विषय में लाने से समय और उर्जा दोनों ही व्यर्थ हो रही है, क्यों, क्योंकि यह फेरबदल किसी के श्रद्धा, किसी के विश्वास, किसी के समर्पण तो किसी के नतमस्तक होने की आत्मकथा है.

कारण इसके पीछे और भी हो सकते हैं क्योंकि आजकल लोकतंत्र बोलने या लिखने से अनुनाद स्वरुप हमेशा लूटतंत्र का ही भान होता है. सरकारी खजाने में जनता के पैसों से धन की बारिश तो हो ही रही है इसलिए यह भी तो हो सकता है कि पहले से जो लोग पंक्ति में खड़े थे उनकी बाल्टियाँ भर चुकी होंगी और इसीलिए अबकी दूसरों को भी मौका दिया गया है. इन्तेजार कीजिये अब उनकी झोली भरने कि जिसके भरने के बाद फिर किसी और को भी मौका मिलेगा, बस लगे रहो मुन्ना भाई के तर्ज पर लगे रहना पड़ता है. प्रधानमन्त्री जी ने तो कह भी दिया है कि चुनौतियों का सामना करते हुए अपने – अपने काम को अंजाम दो. बस खुशी की बात ये है कि जब खुरचन बच जायेगी तो हमारा भी नंबर आएगा भले ही वे कहेंगे कि खजाना खाली है और सब्सिडी वाले बाकी सिलिंडर भी खत्म. जयप्रकाश जी के समय बातें आयीं थीं कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है पर अब तो नेता कहते हैं खजाना खाली है क्या करोगे आकर. पर कोई बात नहीं व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के लिए नींव तो तैयार हो चुकी है.

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