- 68 Posts
- 449 Comments
कबीर का बहुप्रचलित दोहा है दाग़ जो काला नील का, सौ मन साबुन धोय, कोटि जतन पर बोधिये, कागा हंस न होय. आज देश के हर सेक्टर में भ्रष्टाचार का दाग लग चुका है और शायद लोगों को इसी में मजा भी आने लगा है क्योंकि इसमें लिप्त लोगों के पास पैसों की बारिश जो हो रही है. कर्म के फल का प्राकृतिक मिठास लुप्त हो रहा है और दुष्कर्म से उपजा स्वाद आनद देने लगा है. जिसे देखिये उसी को अब भ्रष्टाचार का स्वाद पसंद आने लगा है. जिसे खाने का मौका मिला उसने जी भर के खाया, कुछ ने खाकर जब डकार लिया तो हंगामा मचा और कुछ डकार को भी डकार गए जिससे पता ही नहीं चला कि सब कुछ कैसे और कब हजम हो गया. किसकी पाचन शक्ति कितनी मजबूत है कौन बिना आवाज किये खा सकता है और कौन चटखारे लेकर खाता है बस यही पैमाना रह गया है. जिसे खाने का कोई मौका नहीं मिला या जो चूक गया खाने से या जिसने इन सबसे बचने के लिए व्रत धारण कर रखा है, वर्तमान परिस्थितियों में अब हंसी का पात्र भर है वह. क्या विडम्बना है इस अध्यात्मिक देश की.
अगर आपके पास पैसा है तो आप किसी भी खम्भे को कहीं से भी उखाड़ कहीं भी फिट कर सकते हैं और खासतौर पर इस चौथे स्तंभ यानी मीडिया को. क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो निर्मल बाबा की कृपा इतनी नहीं बढ़ सकती थी.
आज किस पर विश्वास किया जाए और किस पर नहीं यही समझ में नहीं आता. कौन कब धोखा दे रहा है पता ही नहीं लग पा रहा. इस धोखाधड़ी में किसको धिक्कारा जाये यह भी एक प्रश्न ही है. कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति आपको पहली बार धोखा दे तो धोखा देने वाले पर धिक्कार है और यदि आप दूसरी बार भी उसी व्यक्ति से धोखा खा जाएँ तो फिर आप पर धिक्कार है. वर्तमान परिस्थियों में आये दिन जो तस्वीर निकल आ रही है उससे यही लगता है कि यह धोखा देने लें का कार्यक्रम दिन प्रतिदिन अपनी रफ़्तार को बढ़ा रहा है. भ्रष्टाचार में लिप्त लोग अपना कार्य करते हैं और निकल जाते हैं पीछे रह जाते हैं उस पर प्रतिक्रिया देने वाले लोग कभी सम्पादकीय के माध्यम से तो कभी ब्लाग के माध्यम से और कभी दूरदर्शन पर बहस के माध्यम से. ज्यादा बोलिए तो चोरी और सीनाजोरी की कहावत सामने आ जाती है जिसे अब तो मूल आदर्श ही मान लिया गया है.
वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभ स्वास्तिक के समान होने चाहिए थे क्योंकि लोकतंत्र में संतुलन को बनाये रखने के लिए इन सभी का अपना महत्वपूर्ण स्थान है. भारतीय संस्कृति में भी स्वस्तिक को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है जिसके चार भुजाओं से चार युगों सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुगका बोध होता है. यद्यपि ज्यादातर लोग स्वास्तिक के चिह्न को हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिह्न मात्र मानते हैंजबकि वास्तविकता में यह सिर्फ ऐसा ही नहीं है. स्वस्तिक शब्द ‘सु’ ‘अस’ एवं ‘क’ से बना है.’सु’ अर्थात अच्छा, ‘अस’ यानि सत्ता याअस्तित्व और ‘क’ का मतलब कर्ता अर्थात करने वाला यानि अच्छा करने वाला. अमरकोश में भी इसका अर्थ मंगलकार्य को करना ही लिखा है, अर्थात ऐसे कार्य जिससे सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो. परन्तु हमारे भारतीय लोकतंत्र की चारों भुजाएंजिन्हें हम चार स्तंभ कहते हैं आज असंतुलित हो मंगल से अमंगल की ओर बढ़ रही हैं. न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका ये तीन तो सरकारी तमगे के साथ सरकारी तरीके से काम को करते हैं और इनके पास विलक्षण शक्ति और सामर्थ्य के साथ ही समृद्धि के अनन्य श्रोत भी मौजूद हो गए हैं. दूसरी और फिलहाल मीडिया स्वतंत्र है और लगता है उसे भी अपनी समृद्धि की चिंता होने लगी है. पर मीडिया को यह याद रखना होगा कि वह आम लोगों के दिलों के ज्यादा पास है खास और पर सूचना और तकनिकी के इस नए युग में वह लोगों के ड्राइंग रूम और बेड रूम तक पहुँच चुका है. इसलिए आज मीडिया की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है कि वह जिम्मेदारी और समझदारी के साथ बहादुरी को अपनाते हुए ईमानदारीपूर्वक अपना कार्य करे जिससे लोकतंत्र के अस्तित्व पर यदि कभी खतरा भी आ आये तो उसे बचाया जा सके.
Read Comments