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मंहगा पड़ता इन्तजार

WHO WE ARE
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पहले सामान्य ज्ञान की परीक्षा के लिए केवल अखबार पढकर काम चल जाता था पर अब? अब तो सामान्य ज्ञान से ज्यादा घोटाला या अपराध ज्ञान ज्यादा बंट रहा है अख़बारों और दूरदर्शन पर. मजबूरी है मीडिया की भी, जो कुछ चल रहा है बताना और दिखाना भी वही पड़ेगा. पिछले कुछ वर्षों खासतौर पर महीनों की सूचनाएं अगर एकत्रित कर ली जाएँ तो कोई भी व्यक्ति आराम से घोटाला परामर्श कंपनी की शुरुआत कर सकता है क्योंकि हर तरह के घोटाले हमने जाने. कहते हैं यह शरीर पञ्च तत्वों से मिलकर बना है – जल, पृथ्वी, आकाश, वायु और अग्नि. लूटने वालों ने किसी भी तत्व को नहीं बख्शा इसलिए यह कंपनी कुछ वैसी ही हो सकती है जैसे आप और हम आयकर आदि बचाने के लिए टैक्स गुरु की शरण में जाते हैं ठीक वैसे ही किसी भी क्षेत्र में घोटाले को कब, कैसे और कितने तरह से अंजाम दिया जाये इसका तरीका बताना होगा. वैसे तो घोटाला करने वाल स्वयं सिद्ध होता है उसे किसी से सीखने की आवश्यकता नहीं होती है पर फिर भी कंपनी अपना कार्य क्षेत्र बढा सकती है क्योंकि अगर कोई लूटने के बाद लपेटे में आये तो उसे बातों को लपेटने की तरकीब भी तो आनी चाहिए.

अभी हाल ही में हुए घोटालों की फेहरिस्त को दोहराने का कोई मतलब नहीं है, बच्चे, जवान और बूढ़े सभी की जुबान पर बिलकुल रट चुके हैं ये. पकडे जाने या कह लीजिए कि भेद खुलने के बाद इनके बचाव में बयान कैसे कैसे आये ये भी सबको पता है क्योंकि हमसे बढ़िया तमाशबीन कौन होगा. यद्यपि हालिया उजागर हुआ घोटाला जो कि सोनिया जी के लिए जान की बाजी लगाने के लिए तैयार रहने वाले कानून मंत्री महोदय एवं उनकी धर्म पत्नी जी के संरक्षण में प्रतिपादित हुआ जो कि बेनी प्रसाद जी के शब्दों में अन्य घोटालों की अपेक्षा नगण्य ही था. सच है शो रूम में कितना माल सजाया जा सकता है, माल ज्यादा देखना है तो गोदाम तक पहुँचाना होगा. गोदाम से मेरा मतलब था सीडब्ल्यूजी, टूजी, कोल जी आदि से. अब इसमें गलती यही थी कि पहले हम सबने भरे हुए गोदाम देख लिए इसीलिए शो रूम का माल कम लगेगा ही. यही कारण था कि जब कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद द्वारा चलाये जा रहे ट्रस्ट को एक प्रतिष्ठित समाचार चैनल ने बेनकाब किया तो साथी लोग खिसियानी मुस्कुराहट मुस्कुरा दिए क्योंकि व्यापार का फंडा भी यही कहता है कि शो रूम सुसज्जित होना चाहिए और उसका माल दर्शक को आकर्षक लगना चाहिए. वैसे सलमान जी की हैसियत वाड्रा महोदय जितनी नहीं है क्योंकि वाड्रा तो इस तथाकथित बनाना रिपब्लिक के दामाद हैं इसीलिए प्रधानमन्त्री जी ने अपने कानून मंत्री के बचाव में बोल भले ही नहीं बोले पर वाड्रा को सिर आँखों पर बिठा लिए. वैसे एक बात तो माननी होगी कि अब धीरे वाला धीमी गति से ही सही जोर पकड़ रहा है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो दिग्विजय सिंह ए.के. (अरविन्द केजरीवाल) से सत्ताईस सवाल पूछने की बजाय उनको ए.के. सैतालिस की धौंस दे रहे होते. मेरी बातों में तथ्य है क्योंकि अशोक खेमका ने जान से मार दिए जाने की धमकी का जिक्र समाचर चैनलों पर कर रखा है..

वैसे तो देश की जनता अपनी गरीबी के कारण पहले से ही राजनेताओं के दांव पेचों के प्रति अंधी – गूंगी – बहरी होकर अपाहिज जैसा व्यवहार कर रही थी पर धीरे धीरे राजनीति में गंदगी का स्तर खतरे के निशान से ऊपर बहने लगा. ना तो अनुशासित व्यवहार और ना ही अनुशासित आचरण. परिणामतः कचरे का अम्बार लग गया पर अब उस अम्बार से सडांध आने लगी है. कचरा अब विस्फोटक हो रहा है जो जनतांत्रिक, लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि यह आम आदमी के गुस्से को अब चिंगारी दे रहा है. अब तक गाँधी जी के आदर्शों को एक अलग तरीके से अपनाते हुए और उसका पालन करते हुए बेचारा आम आदमी दिन-ब-दिन राजनीति में बढती बुराई को ना तो देख रहा था, ना ही बुरा करने वालों के खिलाफ कुछ बोल पा रहा था और ना ही बुरा करने वालों के खिलाफ बोलने वालों की तरफ ध्यान ही दे रहा था. पर खुलासों के बाद खुर्शीद जी ने जिस प्रकार केजरीवाल को धमकाया उससे डर किसको और किस बात का हो यह भी प्रश्न बन गया है. उसे जिसने भारतीय प्रशासनिक नौकरी इसी काम को पूरा करने का बीड़ा उठाकर छोड़ दी या फिर खेमका जैसों को जो वाड्रा के खिलाफ जांच का आदेश देते हुए बिलकुल नहीं हिचके या स्वामी रामदेव जैसे को जो अर्ध रात्रि के सरकारी दुस्साहस के बाद और साहस के साथ खड़े हो गए.

नहीं, डर तो अब इन राजनीतिज्ञों को लगने लगा है. क्योंकि नैतिकता के नाम पर अनैतिकता फ़ैलाने वाले और पकडे जाने पर फिर से उसी बेचारी नैतिकता की दुहाई देने वाले लोग अब घबराहट में हैं और इसीलिए आये दिन इन बे-चारों की जुबाने भी फिसल रहीं हैं क्योंकि चारा भी घोटाले में हजम हो चुका है. एक तरफ एक योग ऋषि जिसने काले धन के साम्राज्य के खिलाफ अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया और अपनी शोहरत की परवाह नहीं की, दूसरी तरफ अन्ना जैसे समाजसेवी, तीसरी तरफ केजरीवाल जैसा जोश, चौथी तरफ जनरल वी.के.सिंह (सेवानिवृत), अशोक खेमका और गुस्से में भरा आम आदमी. लूट में व्यस्त लोगों को अब डर इसी बात का है कि जो आम जनता अब तक अपने आपको अनजान बनाये हुए थी, जिसकी ख़ामोशी राजनीतिज्ञों को कचरा इकठ्ठा करने के लिए उकसा रही थी वह अब तेजी से जाग रही है क्योंकि इन्हें पता है कि कचरे के ढेर को जलाने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है केवल माचिस की एक तीली ही पर्याप्त होती है. इसका अंदाज सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक जरा से आरोप के लगते ही आरोपित अपना आपा खोने लगते हैं और उनके सभी सगे सम्बन्धी इकट्ठे हो जाते हैं.

समय के साथ साथ बहुत कुछ भुला दिया था हमने और जो कुछ याद रह गया था उसे हमने अपनी सुविधा के अनुसार बस किसी तरह याद रख रखा था. बचपन की तमाम सिखाई हुयी बातों में से बस कुछ कुछ इसलिए याद रहीं क्योंकि उसे याद रखने में हमने यह महसूस किया कि इससे जिंदगी किसी तरह से गुजर ही जायेगी. ऐसे में कबीर का एक अति प्रचलित दोहा याद आता है – राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट, अंत काल पछताओगे जब प्राण जायेंगे छूट. बचपन में पढा यह दोहा आज भी जस के तस याद है पर एक बात बस समझ नहीं आती है कि बचपन से लेकर समाज को समझने तक की सारी पढ़ाई में से कुछ भी होते हुए दिखाई क्यों नहीं पड़ता और जो कुछ होते हुए दिखाई पड़ता है वो सब कहीं लिखा हुआ क्यों नहीं मिलता. अब इसे संस्कारों की विडम्बना कहूँ या पढ़ाई को दोष दूं पर कोई तो दोषी होगा ही. कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ छूटा हुआ है, क्योंकि मौजूदा परिदृश्य में राम नाम की लूट टेलीविजन के आस्था, संस्कार, आध्यात्म जैसे चैनलों पर या फिर राम नवमी जैसे त्योहारों पर ही मचती नजर आती है.

कुतूहलता, जिज्ञासा, आतुरता ये सभी शब्द अलग – अलग हैं, इनके अर्थ भी अलग – अलग हैं लेकिन अकसर जल्दबाजी में हम इन शब्दों को एक दूसरे के स्थान पर पर्यायवाची के तौर पर इस्तेमाल कर लेते हैं. कौतुक लोग वे होते हैं जो घटित हो रही घटनाओं को जानने के प्रति क्षणिक जोश में रहते हैं. उदाहरणार्थ सड़क चलते यदि किसी राहगीर के साथ कोई दुर्घटना हो जाये या फिर कोई चोर करते हुए पकड़ा जाए तो लोग बाग़ भीड़ इकट्ठी कर लेते हैं. पूरी भीड़ कुतूहलता के साथ जानने का यह प्रयत्न करती है कि क्या कुछ घटित हो रहा है, वहां से निकले और भूल गए. वहीँ जिज्ञासु प्रवृत्ति के लोग विषय वस्तु को गहराई से जानने का प्रयत्न करते हैं और उसे अपने जीवन में उतारते हुए अपने ज्ञान के स्तर को बढ़ाने का प्रयास करते हैं. आतुरता इन सबसे अलग है जिसे जल्दबाजी के पर्याय के तौर पर जाना जाता है. आजकल कौतुक और आतुर लोग तो बहुतायत में हैं पर जिज्ञासु लोगों की थोड़ी कमी है. वक्त आ गया है जब हम नित नए घोटालों की ख़बरों को बड़ी कौतुकता के साथ सुनना और सुनकर भूल जाने की आदतों को छोड़ दें, क्योंकि अब तक कई अरबों और खरबों के घोटाले हम जान चुके हैं लेकिन सज़ा और वसूली की ख़बरें नदारद है. यदि हाल यही रहा तो आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा, इसलिए केवल सज़ा से भी काम नहीं चलेगा, वसूली उतनी ही ज्यादा बल्कि उससे भी ज्यादा आवश्यक है. हर पाँच वर्षों में अगले पाँच वर्षों का इन्तजार अब मंहगा पड़ रहा है.

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