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रद्दी का ढेर – Forum

WHO WE ARE
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कुछ भी लिखने के पहले सर्वप्रथम मैं बधाई देना चाहूंगी जागरण परिवार और जागरण मंच द्वारा पिछले दो सप्ताह से चलाये जा रहे अभियान “चलो आज कल बनाते हैं” को. एक ऐसा प्रयास जो सार्थकता के लिए लगातार और अनवरत संघर्षरत है. पिछले दो सप्ताह में अपने समाचार पत्र जिसे कभी कभी मैं संचार पत्र की संज्ञा भी दे देती हूँ के पाठकों तक साथ ही जागरण जंक्शन और जागरण रथ के माध्यम से करोड़ों लोगों तक पहुँच चुका है यह अभियान. जनमत इकठ्ठा करने के लिए दर्जनों प्रश्न पूछे जा चुके हैं जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया और जैसी की उम्मीद थी परिणाम भी सकारात्मक और सही दिशा में. कई शहरों से जागरण रथ गुजर भी चुका है और वहाँ के स्थानीय सम्मानित और प्रभावशाली लोगों ने जागरण के मंच पर बड़े उत्साह के साथ शिरकत भी की और अब तैयारी है सूबे की राजधानी लखनऊ में एक शिखर सम्मलेन की जिसमें शिरकत करेंगे भारत के महामहिम और मुख्यमंत्री. एक बार पुनः धन्यवाद जागरण, इस जागरण कार्य के लिए. भला आजकल किसी अच्छे कार्य के लिए कौन इतना समय, पैसा और दिमाग लगाता है. जिन पन्नों में तमाम विज्ञापन देकर लाखों कमाए जा सकते थे वहाँ पर प्रदेश से लेकर देश निर्माण की बात हो तो अच्छा तो लगता ही है. अब चूँकि समापन, शुरुआत या उदघाटन जो कह लीजिए मेरे शहर लखनऊ में होना है तो मैंने सोचा चलो देखें इन दो सप्ताहों में कितना परिवर्तन आया और मैंने तीन दिनों का दैनिक जागरण समाचार पत्र का लखनऊ संस्करण एक साथ उठा लिया. समाचार पत्र में छपे कुछ समाचारों की मुख्य पंक्तियाँ (Head Lines) –

दिनांक 05 अक्टूबर, दिन शुक्रवार.

लैक्फेड घोटाले का आरोपी भागा बैंकाक, सर मुंडाकर पत्नी को उल्टा लटकाया, पालिटेक्निक चौराहे पर मची अफरातफरी, यातायात अव्यवस्थित, अराजकता का अड्डा बन गया नगर निगम, एअरपोर्ट पर चक्का जाम, सो रहा है नगर निगम का कर विभाग, खपत बारह सौ रुपये और बिल चालीस लाख (बिजली विभाग), बलरामपुर अस्पताल में बेड फुल – फर्श पर इलाज, पुलिस प्रताड़ना से तंग युवक ने लगाई फांसी, कातिलों का सुराग नहीं, फैक्टरी में मिलीं खामियां, चोटी के शिक्षा संस्थानों में एक भी भारतीय नहीं.

दिनांक 06 अक्टूबर, दिन शनिवार

कचहरी सीरियल ब्लास्ट – सरकार वापस लेगी केस, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के मालामाल होने पर सवाल, दामाद के बचाव में आगे आयीं सोनिया, हटने के साथ लग जाती हैं फल मंडियां, अवरोध बन रहे अवैध निर्माण, खराब मीट खाने से चार बीमार, नकली गुटखा समेत तीन गिरफ्तार, कालेज के छात्र जायेंगे अदालत, युवती से छेड़खानी सरेराह कपडे फाड़े, प्रेमिका से इनकार पर ली छात्र की जान, चौकी के पास से ले उड़े जेवरों का डिब्बा, मैच पर सट्टा, कंप्यूटर घोटाले में चार आईएएस.

दिनांक 07 अक्टूबर, दिन रविवार

रसोई गैस हुयी और मंहगी, आधे घंटे में दो जगह से लूटे नौ लाख, पूर्व मंत्री अवधपाल पर दुष्कर्म की एफआईआर, पानी संकट से भड़का आक्रोश, छापे में घरेलू सिलिंडर बरामद, डाक्टरों के साथ ही अस्पताल में घूमते हैं दलाल, सिटी बसों का टोटा – लटक कर सफर करते लोग, अवैध इमारतों में हो रही खुलेआम बिजली चोरी, दुकानदार ने खुद को लगाई आग, नौकरी का झांसा देकर हड़पे नौ लाख, नकली तम्बाकू बेचने वाले सात गिरफ्तार, माया के अधिकांश मंत्रियों का जेल जाना तय, हत्या के षड्यंत्र में पूर्व मंत्री, जालसाजों ने बैंक से निकाले आठ लाख वगैरह वगैरह.

अब ऐसा भी नहीं है कि सभी समाचार इसी कटेगरी के हों परन्तु प्रतिशतता में यही छाये हुए थे. ये समाचार हर रोज लगभग एक जैसे ही होते हैं बिलकुल आजकल की ज्यादातर टीवी धारावाहिकों की तरह जिनमें कहानी तो वही रहती है लेकिन धारावाहिक और चैनल बदलते ही पात्र बदल जाते हैं. आये दिन के ये समाचार प्रतिबिंबित करते हैं कि सार्थक प्रयासों का कितना असर पड़ता है समाज में. मंतरी से लेकर संतरी तक, कलक्टर से लेकर कंडक्टर तक, दुकानदार से लेकर खरीददार तक सभी या तो भ्रमित हैं या सभी को भ्रम में जीने की आदत हो गयी है. हाल ही में एक विचार गोष्ठी जिसका कि विषय था “देश की दशा, दिशा और समाधान” को संचालित करने के लिए विशेष आग्रह को मैं ठुकरा नहीं सकी. यकीन मानिए पांच घंटे के कार्यक्रम की समाप्ति के बाद कार्यक्रम के मुख्य वक्ता जो मात्र इस बात से ही रोषपूर्ण और उद्वेलित व्यवहार कर बैठे कि उनको मुख्य अतिथि के बाद क्यों बोलने का मौका मिला, से यही निष्कर्ष निकाल पायी कि सीधे देश की बजाय पहले हरेक व्यक्ति को अपनी दशा स्वयं सुधारनी होगी और फिर जीवन को दिशा देनी होगी. उस कार्यक्रम में मुझे अहसास हुआ कि समस्याओं के ऊपर बोलने के लिए कहिये तो वक्ताओं की भीड़ लग जायेगी, लिखने के लिए कहिये तो सम्पादकीय का स्तंभ छोटा कहलायेगा लोग बाग अपनी अलग से पुस्तक तक छाप देते हैं. पता नहीं कितने रूप दे रखे हैं भगवान ने इंसान को क्योंकि जब उन्हीं कही और लिखी बातों पर अमल करने की बारी आती है तो लोग बगलें झाँकने लगते हैं. हर व्यक्ति चाहता तो यही है कि भगत सिंह पैदा हो पर पड़ोस के घर में. जब तक आग अपने घर में नहीं लग जाये, जब तक बम अपने सिर पर नहीं फूट जाये तब तक लोग सोना पसंद करते हैं.

बड़ा मुश्किल है यह सब समझ पाना, खास तौर पर उसके लिए जिसे हम आम आदमी कहते हैं. जो चाहता है कि अपने छोटे से परिवार के साथ सुख और चैन पूर्वक जीवन के पलों को बिता ले, जिसके पास कोई राजनैतिक (दैवीय) शक्ति नहीं होती, कोई सिफारिश नहीं होती और जिसे हर जगह लाइन में लगकर, भीड़ का सामना करते हुए अपने श्रम करने के समय में से समय निकालकर अपने परिवार की सभी जरूरतों को पूरा करना होता है. क्या उन तक परिवर्तन की यह आवाज, यह आगाज़ पहुँच रही है? शायद नहीं क्योंकि वे ना तो बुरा देखते हैं, ना तो बुरा सुन सकते हैं और ना ही बेचारे बुरे को बुरा बोल सकते हैं, क्योंकि अगर इन सबमें उलझे तो दाल रोटी का जुगाड कौन करेगा, बच्चे की फ़ीस कौन भरेगा, बिजली का बिल भरना है, मकान का टैक्स भरना है. फुर्सत ही नहीं है या दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार द्वारा पूरी व्यवस्था ऐसी बना दी गयी है कि फुर्सत ही नहीं मिलती. जी रहे है इसलिए कि दुनिया में आ गए हैं बस यही है जीवन का उद्देश्य.

मैंने बचपन में एक वाक्य अपने लिए गढा था “NOT FAILURE BUT LOW AIM IS CURSED”. कोशिश यही रही कि निरंतर अपने इसी वाक्य पर चलते हुए अपने सामाजिक कार्यों को अंजाम तक पहुंचा सकूं, अगर मैं अपने पैमाने से अपने किये कार्यों को नापूं तो थोड़ी देर से ही सही जिस दिशा में मैंने कोशिश की उसमें काफी हद तक सफल भी हुयी. दिशा थी लोगों को उनके व्यक्तिगत स्वास्थ्य का लाभ देते हुए उनको अपने समाज और देश के स्वास्थ्य के प्रति भी थोडा जागरुक करना. मैंने अपने उन्हीं कुछ साथियों से पूछा कि अखबार पढते हैं आप लोग, उत्तर मिला हाँ. मैंने पूछा कि जागरण ने जो अभियान चलाया है ‘चलो आज कल बनाते हैं’ उसके बारे में क्या राय है. किसी ने उत्तर दिया हाँ पढ़ा तो है पर ध्यान नहीं है, तो किसी ने पलटकर पूछा कि क्यों कोई खास बात है क्या. एक व्यक्ति थोडा ज्यादा जागरूक था उसने कहा मैडम जी हम तो पढ़ भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं लेकिन जेका असल में पढ़ने की जरुरत हवे ऊ ना तो ई कुल पढता है अउर ना ओका समझने की कउनो जरुरतै है, ऊ कुल तो बीजी है बस लूटै में. उसकी बातें सुनकर मुझे कबीर की एक पंक्ति बरबस याद आ गयी ‘दाग़ जो काला नील का, सौ मन साबुन धोय, कोटि जतन पर बोधिये, कागा हंस न होय’. फिर भी दाग छोड़ा तो नहीं जा सकता, प्रयास तो करना ही होगा.

यक़ीनन उस व्यक्ति का उत्तर गंभीर और माथे पर चिंता की लकीर पैदा करने वाला था क्योंकि कुछ ही समय बाद ये सारे अखबार, लोगों के विचारों और संकल्पों के साथ रद्दी में चले जायेंगे और चले जायेंगे अखबार के साथ ही साथ सारे के सारे मुद्दे भी उसी रद्दी के ढेर में. आखिर कब तक? गुरु नानक देव जी ने कहा था “जागो रे जिन जागना अब जागन की बार, फिर क्या जागे नानका जब सोये पाँव पसार”

वन्दना बरनवाल, लखनऊ

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