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ढूंढो अपने भीतर के गांधी को – Jagran Junction Forum

WHO WE ARE
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भारतवर्ष में कुछ मुफ्त में मिले न मिले लेकिन एक चीज हर जगह, हर क्षेत्र में उपलब्ध है और वह है मुफ्त की सलाह अक्सर बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारे कर्म क्षेत्र में घुसकर दस्तक भी देती रहती है. सदियों से लेकर आजतक सबसे आसान काम भी यही है क्योंकि इसमें शब्दों के साथ खेलते हुए अगला जो कुछ भी करे उसे अपने शब्दों से बींधना दूसरे शब्दों में कहें तो अलंकृत करते हुए उसे सही गलत के तराजू पर तौलना होता है. बस फिर क्या अपने कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है. बढ़िया काम है और इसे कहते हैं हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा होय. कमाल तो तब मुझे लगता है जब किसानों की खेती को लेकर, मजदूरों की मजदूरी को लेकर, गरीबों की गरीबी को लेकर कोई नेता या कोई अधिकारी भाषण देता है और लेख लिखता है. आधुनिकता की विशाल सीढ़ी चढ़ते हुए जिन बहुमंजिली इमारतों का निर्माण हुआ है उसके नींव के गारे मिटटी में जिन मजदूरों का पसीना मिला हुआ है इसका अहसास भला उन इमारतों में रहने वाले को कैसे, कितना और क्या होगा. स्वतंत्रता की लड़ाई किन किन लोगों ने कैसी कैसी परिस्थियों में लड़ी आज उस पर हम राय दे रहे हैं और बहस कर रहें हैं, क्या हम ऐसा करने के काबिल हैं?

गाँधी जी के मूल्यों और विचारधारा पर किसी प्रकार की पंक्ति लिखने से पहले आज के एक युवा से पूछे गए प्रश्न के बदले उससे मिले जवाब को लिखना चाहूंगी. मैंने उससे पूछा कि महात्मा गाँधी इतने महान थे क्या तुम उनके जैसा बनना चाहोगे उत्तर के बदले मेरे समक्ष उसका प्रश्न था कि आपने मुझे नेहरु जैसा बनने के लिए क्यों नहीं पूछा. मेरी अचकचाहट स्वाभाविक थी परन्तु उस युवा ने स्वयं ही स्पष्ट किया कि अगर नेहरु जैसा बन सका तो अगली पता नहीं कितनी पुश्तें सुखी रहेंगी साथ में गाँधी का तमगा फ्री. पर महात्मा बनने के चक्कर में कोई नाथूराम मिल गया तो मेरी जान पर बन आएगी. उत्तर सुनकर मैं बरबस मुस्कुरा पड़ी. मैंने उससे कहा कि लेकिन तुमने तो गांधीवादी समाजसेवी नेता अन्ना हजारे के समर्थन में भारत माता की जयघोष की है भाई उसकी लाज तो रखो तो इस बार वो मुस्कुराने लगा. उसके मुस्कराहट के पीछे छिपी मंशा को भांपते हुए मैंने उसको याद दिलाया नाथूराम गोडसे के अंतिम बयान का जिसमें गोडसे ने स्पष्ट किया है कि उसने गाँधी को क्यों मारा. गोडसे का बयान पढ़ने के बाद बरबस मैं भी सोच में पड़ जाती हूँ क्योंकि उसके बयान को सुनकर अदालत में उपस्थित सभी लोगों की आँखें गीली हो गयी थीं और कई तो रोने लगे थे. बताते हैं कि एक न्यायाधीश ने अपनी टिप्पणी में लिखा कि यदि उस समय अदालत में उपस्थित लोगों को जूरी बना दिया जाता और उनसे फैसला देने को कहा जाता तो निस्संदेह वे प्रचण्ड बहुमत से नाथूराम गोडसे के निर्दोष होने का निर्णय देते.

चूँकि सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं और अक्सर हम एक पहलू को देखते समय दूसरे पहलू को भूल जाते हैं. जब दूसरे पहलू को देखते हैं तो पहले पहलू की याद नहीं रहती बस चूक यहीं होती है. यह ठीक वैसा ही है जैसे अक्सर जो लोग अपने अधिकारों की बातें करते हैं वे अपने कर्तव्यों को नहीं जानते और जो अपना कर्तव्य जानते हैं उन्हें अपने अधिकार को प्रयोग करना नहीं आता. ऐसे लोग हमेशा एक संशय में जीते हैं परन्तु महात्मा गाँधी एक ऐसी शख्सियत थे जिनके बारे में पूरा विश्व अपने अपने तरीके से बहुत कुछ कह चुका है. अपने सत्य के प्रयोग से गाँधी जी भारत ही नहीं अपितु विश्व के इतिहास के तमाम पन्नों में छाये हुए हैं और इतना सब कुछ विरलों को ही हासिल होता है. उनके कार्य करने के तरीकों की समीक्षा कोई कैसे भी करे उन्हें पूंजीवाद का समर्थक कहा जाये या फिर सर्वहारा और पूंजीवादियों के बीच सामंजस्य स्थापित करने वाला पर उनकी उपलब्धियां और उनकी शैली को याद रखने में ही आनंद है. अपने पूरे आंदोलन में उन्होंने अपने कार्यों के दौरान सिक्के के दोनों पहलुओं पर बराबर अपनी पैनी नजर गडाये रखी. यद्यपि अपने प्रयोगों के सन्दर्भ में गाँधी ने कभी सम्पूर्णता का दावा तो नहीं किया तथापि अमूमन उनके प्रयोग सफल ही रहे सिवाय आज़ादी के तुरंत बाद के उनके निर्णय को छोड़कर. बचपन से लेकर आज तक हमेशा यह बात जरूर खटकती है कि आखिर ऐसी क्या वजह थी कि आज़ादी के बाद गाँधी ने नेहरु और पटेल में इतना बड़ा भेद किया. गाँधी जी को यह पता था कि प्रधानमंत्री पद के लिए अधिकांश कांग्रेस समितियां सरदार पटेल के ही पक्ष में हैं फिर भी नेहरु के लिए लिया गया उनका निर्णय किसी और दिशा में भी सोचने को विवश करता है. बस यहीं आकर गाँधी जी के सिद्धांत पर, उनकी सोच पर प्रश्न उठाने का मन होता है क्योंकि भारत का बच्चा बच्चा जानता है कि सरदार पटेल हर लिहाज से प्रधानमंत्री पद के लिए नेहरु से बेहतर थे.

हो सकता है उन परिस्थियों को आज हम नहीं समझ सकें पर गाँधी अपने इसी कृत्य से नेहरु परिवार के नाम के साथ हमेशा के लिए फिट कर लिए गए और उनके नाम पर कांग्रेस के राजनैतिक उत्पाद का आज भी जबरदस्त विपणन होता है. महात्मा गाँधी शारीरिक बनावट से दुबले पतले कमजोर से एक ऐसे शख्स जो हमेशा अपने साथ सहारे के लिए एक लाठी रखते थे पर उनका नाम जप-जप कर राजनीति की बुलंदियों को छूने वाले आज ब्लैक कमांडो के साये के बगैर एक पग भी नहीं बढ़ाते और जिनके काफिले में बुलेट प्रूफ गाड़ियों की संख्या भी दहाई में ही होती है. ये वही लोग हैं जो आज भी महात्मा गाँधी के समाधि स्थल राजघाट पर जाते वक्त भी संगीनों के साये में जाते हैं और कहते हैं अहिंसा परमो धर्मः. ऐसे लोग महात्मा गाँधी के बारे में कुछ भी कहते हों तो खीज तो आएगी ही पर शायद उसे अनसुना कर देना ही श्रेयस्कर है क्योंकि वर्तमान राजनितिक सन्दर्भों में गांधीवादी राजनीति का कोई स्थान नहीं रह गया है.

महात्मा गाँधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ (My Experiment with Truth) के प्रस्तावना में लिखा है कि ‘मेरा कर्तव्य तो, जिसके लिए मैं तीस वर्षों से झीख रहा हूँ, आत्मदर्शन है, ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है. मेरी सारी क्रियाएँ इसी दृष्टि से होती हैं, मेरा सारा लेखन इसी दृष्टि से है और मेरा राजनैतिक क्षेत्र में आना इसी वस्तु के अधीन है’. गाँधी के तमाम विचारों की ही यह देन है कि जिस तरह से मंदिरों में भगवान की तस्वीर लगी होती है और भक्तगण बड़ी ही श्रद्धा से उस पर फूल माला चढाते हैं उसी प्रकार आज महात्मा गाँधी की तस्वीर भी राजनैतिक गलियारों में इस्तेमाल की जाती है और उनके तथाकथित भक्तगण उसी श्रद्धा से उस पर माला चढाते हैं.. दोनों तस्वीरों के प्रति श्रद्धा रखने वालों में एक जबरदस्त समानता और है. भगवान के भक्त भी भगवान का गुणगान करते हुए कहते हैं कि तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा और जब आरती की थाल में चढावा चढाने की बारी आती है तो चवन्नी (हालाँकि अब बंद हो गयी है), अठन्नी या कटा फटा नोट ढूंढते हैं. कुछ वैसा ही हाल गाँधी जी का नाम जपते हुए राजनीति करने वालों का भी है. अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गाँधी जी ने जो कुछ भी किया वो समय की मांग थी और इतना बड़ा संकल्प इतना बड़ा कार्य करने के लिए यदि पूँजीवादियों से मित्रता थी भी तो इसमें क्या गुनाह था क्योंकि जहाँ तक उनकी व्यक्तिगत पूँजी थी वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह थे हाँ ये और बात है कि उनके नाम पर राजनीति करने वाले स्वतंत्र भारत में जरुर पूंजीपति हो चुके हैं.

मुझे लगता है गाँधी जी पर पूंजीपतियों और पूंजीवादी व्यवस्था का संरक्षक होने का आरोप लगाना पूर्णतया ठीक नहीं होगा क्योंकि किसी भी प्रकार का आरोप गढ़ने वाले को एक बात यह भी सनद रखनी होगी कि अगर तीर से निशाना लगाना है तो उसे तरकश से निकालकर धनुष पर चढाना होता है, तीर अपने आप निशाने को भेदने में सक्षम नहीं हो सकती. उस समय जिससे जो कुछ बन पड़ा, जैसे बन पड़ा सभी ने अपने अपने तरीके से देश के लिए लड़ाई लड़ी. नतीजतन अंग्रेज चले गए पर अंग्रेजी व्यवस्थाएं रह गयीं. उस लड़ाई में या उसके बाद हुयी गलतियों को सुधारने का आज हम सभी को फिर एक अवसर मिला है क्योंकि सफाई कि कोई भी प्रक्रिया हो वह निरंतर चलती रहनी चाहिए. आज देश फिर करवट बदल रहा है, आज जहां हम खड़े हैं वह परिवर्तन के युग संधि का काल है. अभी किये गए कार्यों को एक बार फिर सदियाँ याद करने के लिए तैयार है. पूरे देश में अंग्रेजी व्यवस्थाओं के खिलाफ माहौल बना हुआ है, देशवासिओं में असंतोष का भाव भरा हुआ है वक्त है इस बने हुए माहौल में अपने अंदर के गांधी को ढूँढने का. अब हमें व्यबस्था परिवर्तन की लड़ाई के बारे में सोचना होगा. हर व्यक्ति चाहे वो किसी भी स्तर पर हो, देश के प्रति अपनी सोच में सकारात्मकता लाये और फिर उस सोच को अपने कर्मों के माध्यम से अमली जामा पहनाना शुरू करे क्योंकि पहले ही बहुत देर हो चुकी है और इससे ज्यादा देर होने पर हम सभी को किसी ना किसी रूप में खामियाजा भुगतना पड़ रहा है.

बच्चों की अर्धवार्षिक परीक्षाएं चल रही है उन्हें तो उनकी परीक्षा के लिए पाठ्यक्रम उनके विद्यालयों में बता दिया गया है लेकिन आज हमारे देश में हर दिन एक परीक्षा हो रही है जिसका पाठ्यक्रम हमें नहीं पता और पास हों या फेल यह परीक्षा भी हम सभी देशवासियों को देनी ही होगी. यह एक कठिन परीक्षा की घडी है और पाठ्यक्रम जानने के लिए गाँधी जी के तीन बंदरों के अंदाज को भूलकर अपने आँख और कान खुले रखिये और वक्त आने पर मुंह भी खोलने के लिए तैयार रहिये.

वन्दना बरनवाल

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