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आम आदमी के प्रहरी – Jagran Junction Forum

WHO WE ARE
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भारतीय राजनीति का खेल शायद विश्व के अन्य सभी देशों से ज्यादा कठिन और अबूझ होता जा रहा है. खास तौर पर राजनीतिज्ञों द्वारा आम आदमी के लिए और उसके नाम पर की जा रही राजनीति उसी आम आदमी के लिए एक जबरदस्त पज़ल गेम (Puzzle Game) साबित हो रही है जिसके बारे मैं जब कभी भी जहाँ कहीं से भी वह सोचना शुरू करता है उसे हर बार यही लगता है यह तो इसकी शैशवावस्था है और जहाँ जाकर उसकी सोच समाप्त होने लगती है उससे भी कहीं आगे से इन राजनीतिज्ञों के सोच की बाल्यावस्था शुरू होती है. शायद यह सब राजनीति के क्षेत्र में अचानक आये अथाह पैसों का खेल है और उन पैसों से उपजी असीमित ताकत की देन है. राजनीति से बहुत ज्यादा लगाव नहीं होने के बावजूद स्वाध्याय की आदत के कारण मैंने चाणक्य की कुछ पुस्तकों का अध्ययन अपने राजनीतिक समझ को बढ़ाने के लिए भी किया है लेकिन लगता है कि या तो मेरे पढ़ने और समझने में कोई त्रुटि रह गयी या फिर भारतीय राजनीति ने भी नए अनुसंधान कर नए-नए खोज कर लिए हैं. आज शायद चाणक्य जीवित होते तो मैं उनसे अपने मन में उठते कुछ प्रश्नों का उत्तर अवश्य तलाशती. ऐसा क्यूँ है कि जिस प्रकार की राज की नीति भारत देश में हो रही है वैसी राज की नीति में से राष्ट्र की नीति बड़ी तेजी से विलुप्त होती जा रही है. एक आम आदमी की आँखों में अपने नेता के प्रति सूनापन बढ़ रहा है वह उलझन में है और आये दिन कुछ ना कुछ ऐसा घटित हो रहा है कि उसकी उलझन, उसकी झुंझलाहट में तबदील हो रही है. राजनीति का यह जबरदस्त उलझाऊ खेल कुछेक खास लोगों द्वारा आम आदमी के पैसे से आम आदमी के नाम पर आम आदमी के लिए आम आदमी को लूटते हुए आम आदमी को दरकिनार करते हुए और आम आदमी को उसकी औकात बताते हुए पूरी तरह से मूर्ख बनाते हुए खेला जा रहा है और बेचारा वही आम आदमी इस खेल को तमाशबीन बना देखकर तालियाँ भी पीट रहा है.

कमाल की राजनीति है ये, जहाँ हर मोर्चे पर नेता तो अपनी सफलता की एक नयी कहानी एक नयी इबारत लिखता है जिसके प्रस्तावना से लेकर निष्कर्ष तक हर पंक्ति में आम आदमी ही छाया रहता है. कोई भी योजना हो, कोई भी परियोजना हो, सब्सिडी देनी हो या खत्म करनी हो या प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश की बात हो सब कुछ उसी आम आदमी के नाम पर होता है और साथ ही होता है बलात्कार उसी आम आदमी के बहू बेटी के साथ, कभी होती है चोरी / हत्या / अपहरण की वारदात तो कभी फंसता है वो दंगे और फसाद में. जन्म से लेकर मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए भी वही परेशान होगा, टैक्स भी उसी को चुकाना है, डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस के दाम बढ़ जाएँ तो भी पिसेगा वही. इतना मसाला काफी होता है एक कहानी के सुपर हिट होने के लिए और ऐसी हिट कहानी के लेखक कौन हमारे नेता, संपादक कौन हमारे नेता और तो और प्रकाशक भी नेता. कहानी तो बिकेगी ही और जब बिक गयी तो लाभान्वित भी नेता. कहानी के केन्द्र में बैठा आम आदमी ज्यामिति की गलतियों के कारण कभी भी उसकी परिधि तक ना तो पहुँच सकता है और ना ही पहुँचने की सोच सकता है. यही नहीं अपने चारों तरफ बने वृत्त के बाहर भी वह नहीं निकल सकता है क्योंकि वह तो घिरा ही है उस परिधि से और बना है भाषण के केन्द्र में रहने के लिए.

आम आदमी को केन्द्र में रखते हुए उसके चारों और उसकी परिधि पर फैले प्रहरी की तरह आज हमारे नेता पता नहीं क्या समझने लगे हैं इस केन्द्र को. ये ऐसे नेता हैं जिन्हें बाकी कोई गणित आती हो या नहीं लेकिन लोकसभा में अंको की गणित कैसे पूरी की जाये यह बखूबी आती है.. कांग्रेस को राजनीति के साथ ही शासन की कला भी अन्य सभी राजनीतिक दलों की अपेक्षा सबसे ज्यादा आती है और इसीलिए प्रत्यक्ष पूँजी निवेश एवं डीजल व रसोई गैस के मसले पर उसकी अहम सहयोगी तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्षा और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी जैसी नेता भी धोखा खा गयीं लेकिन जाते जाते एक बात स्पष्ट कर गयीं ममता कि उनका कोई सानी नहीं है. हालाँकि शायद उन्होंने भी सपने में यह नहीं सोचा हो कि जो दांव उन्होंने चला है उसे वापस लेने का मौका उन्हें नहीं मिलेगा. लेकिन इसी मौके की तलाश में थे मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे नेता.

तीसरे मोर्चे की बात भले ही नयी नहीं हो परन्तु इसकी आहट देकर मुलायम सिंह अपने आपको लेख के अग्रिम पंक्तियों में वर्णित आम आदमी के नए प्रहरी के रूप में पेश करने की दिशा में पहल कर सकेंगे इसमें संदेह है इसलिए कार्य की सफलता पर भी संदेह ही है. यद्यपि इस मोर्चे की सुगबुगाहट तो पहले से ही हो रही थी क्योंकि वर्तमान राजनीति में अब चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ भले ही ना हो परन्तु आम जनता और आम आदमी के नाम पर राजनीति की दुकान को चमकाने वालों की कोई कमी नहीं है. यूपीए भाग दो की सरकार जिस प्रकार और जैसे सहयोगियों के साथ ताल ठोंककर राज कर रही है उससे अब भारत की राजनीति की दुर्दशा को समझा जा सकता है. फिलहाल तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि कुछ दलों के नेता तो शायद केन्द्रीय जांच ब्यूरो के डर से ही कांग्रेस के सुर में सुर मिला रहे हैं.

बहरहाल सरकार किसी भी दल की बने किसी भी मोर्चे की बने वह भले ही पहले, दूसरे, तीसरे या चौथे मोर्चे की सरकार हो पर आग्रह सभी दलों से बस एक ही है कि मात्र सत्ता हासिल करने के लिए मोर्चे नहीं बनाये जाएँ बल्कि जिस आम आदमी के नाम का सिक्का बार-बार उछाला जाता है, जिस आम आदमी की बातें बार-बार की जाती हैं हमारे नेता कुछ ऐसा कर जाएँ कि उस आम आदमी का जीवन भी खुशहाली से खनकने लगे क्योंकि जब तक वह आम आदमी खुशहाल नहीं होगा तब तक देश खुशहाल नहीं होगा और जब तक देश खुशहाल नहीं होगा तब तक हम तरक्की की नयी परिभाषाएं नहीं गढ़ पाएंगे. बस थोड़ी सी राजनीतिक इच्छा शक्ति जागृत करनी होगी और थोडा ध्यान व्यवस्थाओं पर देना होगा, एक बड़ा परिवर्तन राह ताक रहा है, जरुरत है बस एक नेता की जिसके केवल लिखित भाषणों में आम आदमी का जिक्र ना हो बल्कि वह आम आदमी की आवश्यकताओं को समझ कर उनका निदान भी कर सके और उनका प्रहरी भी बन सके.

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