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आरक्षण किसी के लिए रक्षा तो किसी के लिए असुरक्षा – Jagran Junction Forum

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किसी बीमारी का जड़ से इलाज बीमार को बीमारी के सिम्टम पर आधारित दवा देकर नहीं किया जा सकता है. बीमारी को मिटाना तो दूर कि बात, आजीवन दवा के माध्यम से नियंत्रण करना भी नामुमकिन होता है. क्योंकि जब कभी भी आप किसी भी बीमारी का इलाज उसके सिम्पटम पर आधारित रहकर करेंगे तो कभी भी आपका पूरा सिस्टम ठीक तरह से कार्य को अंजाम नहीं दे सकता है चाहे कितना इलाज कर लें. आज किसी एक बीमारी का इलाज करेंगे तो कल दूसरी पनपेगी, कल उसका इलाज करेंगे तो परसों तीसरी पनपेगी और जब तक तीसरे का इलाज करेंगे पहले वाली बीमारी फिर उभरकर आएगी ही. इसलिए जब तक शरीर का पूरा सिस्टम ठीक तरह से कार्य नहीं करेगा तब तक बिमारियों का आना लगा रहेगा मर्जी आप की है कि क्या चिकित्सक को फायदा पहुंचाना है और अपने समय एवं शरीर को नष्ट करना है?

देश की व्यवस्थाएं भी इसी प्रकार हैं, हम सिम्पटम पर आधारित बातें करके समय और पैसा दोनों बर्बाद कर रहे हैं. जब तक टुकड़ों – टुकड़ों में हम देश को ठीक करने का प्रयास करते रहेंगे कभी भी हम पूरे देश को ठीक नहीं कर सकते और असंतुलन हमेशा बरकरार रहेगा. कभी हम जाति के नाम पर समाज का असंतुलन दूर करने के लिए नयी-नयी गलतियाँ दोहराते हैं तो कभी धर्म के नाम पर और इसी कड़ी में अब प्रमोशन में रिजर्वेशन के नाम पर एक नयी गलती शुरू करने की तैयारी है. आज़ादी के पैसठ वर्षों बाद भी आरक्षण को जिस तरह से भुनाया जा रहा है समझ नहीं आता है कि यदि आज एक बच्चा जन्म ले तो उस मासूम को उसकी जाति के बारे में क्या बताया जाये, उससे क्या कहा जाये कि पैदा होते ही तुम्हारी सरकारी नौकरी पक्की है या नहीं? आरक्षण पर राजनीति करने वाले नेताओं ने आरक्षण शब्द को एक अत्यंत ही संवेदनशील मुद्दा बना दिया है जिस पर अपना स्वतन्त्र विचार रखने में भी विवशता महसूस होती है. हर राजनीतिक दल अपना वोट बैंक बचाने और बनाये रखने के लिए इसे अपने तरीके से इस्तेमाल करते हैं. यह एक ऐसी आग है जो अपने साथ माचिस और पेट्रोल दोनों साथ रखने का माद्दा रखती है बस छेडने भर की देर है सब कुछ स्वाहा. जिन्हें आरक्षण मिल रहा है वे तो जानबूझकर यह समझना नहीं चाहते कि आरक्षण की सुविधा और फिर कम समय में पदोन्नति, से किस प्रकार से उनकी नयी पीढ़ी को नुक्सान होने वाला है, कैसे उस नयी पीढ़ी की आदतों को यह अकर्मण्यता सिखाने वाली है. जातिगत आरक्षण की सुविधा प्राप्त लोगों को जहाँ एक तरफ कम मेहनत से सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाता है, वहीँ दूसरी तरफ कड़ी मेहनत और योग्य होने के बाद भी शेष लोगों को असफलता मिलने से मनोबल टूटता है, असंतोष पैदा होता है और उनमें से कुछ लोग आत्महत्या तक करने को मजबूर होते हैं, आखिर यह असंतुलन क्यों थोपा जा रहा है समाज पर. इस मुद्दे को समर्थन देकर नेताओं द्वारा वोट जुटाने का तरीका घुन की तरह पूरे देश को धीमी गति से खोखला करने का और दीमक की तरह चट करने का कार्य कर रहा है. इसलिए इसे समर्थन देने वाले सभी राजनीतिक दलों और संगठनों की नीयत पर सवाल उठाना लाजिमी है. आज़ादी के 65 वर्षों के लंबे समयांतराल में हम जहाँ थे उससे भी कहीं पीछे धकेल दिए गए हैं और इस बदहाली के कारक नेताओं के व्यक्तित्व पर अब शर्मिंदगी होती है.

प्रमोशन में रिजर्वेशन का कांग्रेसी राग सुनकर जिन लोगों को आज़ादी के पैंसठ वर्षों में भी दलितोत्थान नहीं होने के कारण अपनी आँखों में बहुत ज्यादा धुँआ लग रहा था भले ही उनको आराम महसूस हो रहा हो परन्तु वे लोग जो इस धुएं के पीछे की आग से पहले भी दहले हुए थे वो आग आज भी अभी भी जस की तस हर तरफ धधक रही है. आजाद भारत के इतिहास में कभी भी किसी राजनीतिक दल और खास तौर पर केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने इस दिशा में कभी कोई सार्थक पहल किया ही नहीं और मायावती जी की पूरी राजनीतिक बिसात तो इस इकलौते मुद्दे पर ही टिकी हुयी है. तथाकथित दलितोत्थान के लिए इन लोगों ने अपने जीवन काल में इतना प्रयास किया है कि इनके प्रयासों के बावजूद ना तो देश की दिशा ही सुधर सकी और ना ही देश की दशा को ही सुधारा जा सका लिहाजा इसका खामियाजा हर आम आदमी भुगत रहा है. कुर्सी की खातिर हमारे नेता जब तक धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर हमें बाँटते रहेंगे तब तक यह आग ऐसे ही धधकती रहेगी और इसका धुँआ हम सबकी आँखों में यथावत लगता रहेगा. शायद यही उनकी मंशा भी है जिसे एक आम आदमी समझ नहीं पा रहा है.

आजाद भारत में आरक्षण का मुद्दा राजनीति का घिनौना खेल खेलने वालों के लिए एक तुरुप के पत्ते की तरह काम करता है और जब कभी भी इस खेल को खेलने वाले अपने आपको कहीं और उलझता हुआ पाते हैं तो वह इस तुरुप की चाल को चलते हैं. इतने संवेदनशील मुद्दे पर कांग्रेस कितनी संवेदनहीन हैं इसका जवाब यह मुद्दा अपनी ताजगी से खुद-ब-खुद देता है. आरक्षण का लाभ जिनको मिलना चाहिए वे तो इन राजनेताओं के वोट बैंक के खाताधारक की तरह हैं परन्तु अब इस खाते को खोलने के लिए शर्तों में बदलाव की जरुरत है.

पूरे देश को, चाहे वह किसी जाति का हो, किसी सम्प्रदाय का हो, एक विचार जरुर करना चाहिए कि आखिर कब तक टुकड़ों-टुकड़ों में भलाई के नाम पर हम इस देश के टुकड़े-टुकड़े होते देखते रहेंगे. क्या देश की सत्तर फीसदी आबादी जो बमुश्किल एक जून की रोटी का जुगाड कर पाती है वो पूरी की पूरी ऐसे आरक्षण की पात्र नहीं है? इसलिए बेहतर तो यही होगा कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को ऐसा बना सकें जिससे कोई अशिक्षित नहीं रह जाये, हम रोजगार के इतने साधन उत्पन्न कर सकें कि कोई बेरोजगार नहीं रह जाये. हर किसान, हर श्रमिक जब शाम को घर लौटे तो उसके चेहरे पर कम से कम इतना संतोष अवश्य हो कि कल जब नया सूरज उगेगा तो उसके घर का कोई सदस्य भूखा नहीं रहेगा.

वंदना बरनवाल

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