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आज एक बार फिर शब्दों के माध्यम से विचारों को प्रकट करने के लिए मन उद्यत हो रहा है क्योंकि मुझे पता है कि सकारात्मक तरीके से अगर विचारों का आदान-प्रदान किया जाये तो उससे भी स्वयं को बड़ी मानसिक शक्ति प्राप्त होती है. शायद यह ब्लॉग आज मेरी मानसिक शांति का एक श्रोत बनकर सामने आएगा ऐसा मुझे विश्वास है. जब मैं अपने इस ब्लॉग को लिखने बैठी थी तब टीवी के सभी समाचार चैनलों पर (दूरदर्शन) को छोड़कर इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के लोग दिल्ली में सोनिया गाँधी के दस जनपथ स्थित आवास से लेकर, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संसद और भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के आवासों के सामने कोल ब्लोक आवंटन में घोटाले को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे और अपनी गिरफ्तारियां दे रहे थे. मैं सोच रही थी कि असम मुद्दे की आड़ में अभी सोशल मीडिया पर सरकार अंकुश लगाकर थोड़ी राहत की सांस लेना चाह रही होगी लेकिन अचानक अब नयी आफत उसके ऊपर आन पड़ी. क्योंकि टेलीविजन वाले तो मानेंगे नहीं और अख़बारों के सम्पादकीय पृष्ठ से भी संपादकों के शब्दों के तीर कल सभी समाचार पत्रों के माध्यम से निकलेंगे ही.
आखिर देश में ये कौन सी व्यवस्था पनप रही है? लोकतंत्र और तानाशाही को लेकर मैं शायद असमंजस में हूँ. बाबा रामदेव और उनके समर्थक जब काले धन की बात करते हैं तो सरकार ना दिन देखती है ना रात उनके और उनके समर्थकों से निबटने के हर सही गलत उपायों को अपना लेती है. इस मुद्दे पर वार्ता ही एक दिवास्वप्न है क्रियान्वयन की बात तो इस मुद्दे को और मुंह चिढाता नजर आएगा. अन्ना हजारे जब कहते हैं कि चलो कोई बात नहीं कम से कम लोकपाल क़ानून ही बना दो दूध का दूध और पानी का पानी लोकपाल से करवा लेंगे लेकिन जब चार-पांच दशकों में कुछ नहीं हुआ तो भला अब क्यों?
भ्रष्टाचार की बातें भी इतनी बासी होने लगी हैं हैं इनकी बातें लिखने में उबासी आने लगती है.
मेरे सामने समाचार पत्र पड़ा है, कुछ खास समाचर – गेहूं की कीमतें बेकाबू, बारिश के पानी में क्विंटलों गेहूं सडकर बर्बाद. प्रोन्नति में आरक्षण के लिए सरकार प्रतिबद्ध, असम में फिर भडकी हिंसा, सूखे से किसान ने की आत्महत्या, देश के इतिहास में सबसे बड़े घोटाले का पर्दाफाश और इसके साथ ही सोनिया गाँधी का अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश – आक्रामक रवैया अपनाएं कांग्रेसी. मैं फिर असमंजस में हूँ इन समाचारों से मुझे लगता है मेरी मानसिक शांति भंग हो रही है क्योंकि ये सभी समाचार विरोधाभासी होने के साथ ही शिखर पर बैठे लोगों के चरित्र और उनके काबिलियत पर सवालिया निशान ही नहीं लगा रहे हैं बल्कि हर पांच साल में जिस लोकतंत्र की खोट को मिटाने के लिए हम अपने वोट का इस्तेमाल करते हैं उस वोट को शर्मसार भी कर रहे हैं. वैसे हमारी इस काबिलियत को आज़ादी के इतने दशकों में हमारे नेता बखूबी जान चुके हैं और इसीलिए 2014 के लोकसभा चुनावों की खुसुर-फुसुर शुरू होने के बावजूद कालेधन, भ्रष्टाचार और सशक्त लोकपाल बिल जैसे सभी मुद्दे पर वे निश्चिन्त हैं. वे जानते हैं हैं कि हम हर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी में देश भक्ति गीत सुनकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेने वाले लोग हैं. मंगाई दो दुनी चार हो या घोटाले की रकम में शून्य जुड़ता रहे, भारतीय बहुत एडजस्टिंग नेचर के होते हैं वे इतने भोले होते हैं कि कभी-कभी लोकतंत्र और तानाशाही में फर्क भी नहीं कर पाते.
जय प्रकाश ने लोकतंत्र को एक ऐसे पौधे की तरह माना था और वे कहते थे कि अगर लोकतंत्र तानाशाही में पनपे तो वह चाहे वह संदेहास्पद है। भारतीय लोकतंत्र को अपने अनुभव से अब परिपक्व हो जाना चाहिए था लेकिन संसद के अंदर और बाहर के हालातों को देखकर ऐसा लगता है कि अभी हमें अभी आगे बहुत कुछ और सीखना बाकी है और निश्चित रूप से अनुभव की पाठशाला में जो पाठ सीखे जाते हैं, वे पुस्तकों और विश्वविद्यालयों में नहीं मिलते. हमारी नयी पीढ़ी को इस अनुभव-प्राप्ति के लिए शायद काफ़ी मूल्य चुकाना पड़ सकता है और तब तक देर हो जाने की संभावना भी है.
राम राज्य तो अब ग्रंथों में ही सीमित हो गया है जब कहा जाता था कि न राज्यं न च राजासीत्, न दण्डो न च दाण्डिकः, स्वयमेव प्रजाः सर्वा, रक्षन्ति स्म परस्परम् अर्थात न राज्य था और ना राजा था, न दण्ड था और न दण्ड देने वाला स्वयं सारी प्रजा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी. परन्तु मुझे फिर भी पता नहीं क्यों यकीन हैं कि भारत के वे दिन जरूर लौटेंगे और हम फिर से विश्व गुरु बनेंगे क्योंकि विदेशी भले ही मंगल में जीवन खोजें पर हम तो जीवन में मंगल की कामना में विश्वास रखते हैं.
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