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देर ना हो जाये …………………..कहीं देर ना हो जाये.

WHO WE ARE
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भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश माना जाता है. लोकतंत्र अर्थात अब्राहम लिंकन के अनुसार जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा वह शासन जिसमें जनता ही सत्ताधारी होती है तथा जनता की अनुमति से ही शासन होता है तथा शासन का एकमात्र लक्ष्य जनता की प्रगति को ही माना जाता है. यह शासनाव्यवस्था ठीक-ठाक संतुलित होकर चलती रहे उसके लिए इतिहासकारों ने कुछ उपाय भी बताये मसलन आन्दोलन, क्रांति आदि. इसका उदहारण भी इतिहास में मौजूद है मसलन इंगलैंड की रक्तहीन क्रांति, अमेरिकी क्रांति, फ्रांसीसी क्रांति, 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के आलावा इमरजेंसी के समय जय प्रकाश नारायण द्वारा चलायी गयी क्रांति जिन्होंने लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप को बनाने या कहें कि स्थिर करने में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया.

लोकतंत्र की परिभाषा से यह महसूस होता है कि यह शासन व्यवस्था पूरी तरह से जनता के हित में है परन्तु तस्वीर इसके उलट होती है क्योंकि जिस किसी को भी सत्ता, शक्ति और सामर्थ्य मिल जाता है वही अनुशासनहीनता का परिचय देते हुए इसका दुरुपयोग शुरू कर देता है. एक तरफ देश अपनी तथाकथित आज़ादी का छाछठवां जन्मदिन मनाने की तैयारी कर रहा है तो दूसरी तरफ जिस किसी को भी इस दौरान मौका मिला उसी ने जमकर इसे लूट भी लिया और लूट भी ऐसी कि आकाश से लेकर पाताल सब एक कर दिया लुटेरों ने. पहले लूट ऐसी होती थी जैसे कि दाल में नमक लेकिन धीरे-धीरे उसका स्वाद सभी को भाने लगा और आदत खराब होती चली गयी. नतीजतन खाने वाले नमक में ही दाल खाने लगे, लेकिन भूख तो भूख ही है और जब स्वाद पसंद आ जाये और कोई रोकने-टोकने वाला नहीं हो तो फिर किसकी परवाह. दाल भी अपनी और नमक भी अपना, खाओ भी जी भरकर, खिलाओ भी जी भरकर और आने वाली पुश्तों के लिए जमा भी करते रहो..

कुछ ऐसा ही होने लगा है हमारे भारतवर्ष में वर्षों से. लोकतंत्र के शत्रु को पनाह देने वाले चंद लोग जिनकी संख्या भारत की जनसँख्या से अगर आंकी जाये तो उनकी प्रतिशतता बमुश्किल दशमलव दूसरे अंक पतक होगी, पूरी तरह से सक्रिय हो गए. कब, क्यों और कैसे – क्योंकि हमारा आध्यात्मिक इतिहास भी है और हम मौन रहने में आनंद का अनुभव ज्यादा करते हैं. भ्रष्टाचार, आतंकवाद, हिंसा, वंशवाद, परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धार्मिक उन्माद, अशिक्षा……..(सूचि बहुत लंबी है) इन सभी को हमने मौन स्वीकृति दे डाली और सिर्फ स्वीकृति ही नहीं दी बल्कि इन सबको किसी ना किसी रूप में अपने सार्वजनिक जीवन में भी स्वीकृत करते चले गए परन्तु यह भूल गए कि दुनिया सिर्फ हमीं से शुरू होकर हमीं पर खत्म नहीं होगी बल्कि जाने से पहले हम ये सभी कुछ विरासत में अपनी पीढ़ी को देकर जाने वाले हैं.

इस मौन को तोड़ने के लिए और अपाहिज हो चुके लोकतंत्र की बैसाखी बनने के लिए सामने आये योग ऋषि स्वामी रामदेव और समाजसेवी अन्ना हजारे. इन दोनों ने अपने-अपने तरीकों से कालेधन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर लोगों को जफ्रित करना शुरू किया. जनता भी शायद सोये सोये ऊब सी गयी थी इसलिए एक वर्ष पूर्व अचानक अन्ना हजारे की क्रांति में जन सैलाब उमड़ पड़ा, सरकार और उनके लोग घबराये और इसी घबराहट में अन्ना के खिलाफ बेतुका बयान देते हुए उनको जेल में भेज दिया ऐसी गलतियों ने लोगों को स्वतः स्फूर्त होकर अपने घरों से निकलने के लिए प्रेरित किया. लेकिन अन्ना या शायद उनकी टीम इस बार चूक गयी – परिणाम सबके सामने आया, लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों को यद्यपि थोड़ी मायूसी हुयी, इसलिए नहीं कि एक नयी राजनीतिक पार्टी के जन्म का ऐलान हुआ बल्कि इसलिए भी कि जनता द्वारा चुनी हुयी सरकार इतनी निष्ठुरता के साथ क्यों पेश आयी. संभवतः कोई विकल्प नहीं होने के कारण ही टीम अन्ना द्वारा राजनीति का हथियार उठाया गया पर इससे लोकतंत्र का असंतुलन ही बढ़ेगा.

अब इसके बाद बारी आयी योग ऋषि स्वामी रामदेव की, योग के माध्यम से करोड़ों लोगों से जुड़ने के साथ ही स्वयं के आन्दोलन का अनुभव, अन्ना के आन्दोलन का अनुभव और सरकार के रवैये का अनुभव; नौ अगस्त से शुरू हुए उनके आन्दोलन में इस बार इन सभी का अनुभव स्पष्ट रूप से काम आता दिखलाई पड़ रहा है परन्तु इस बार सरकार (कांग्रेस कहें तो ज्यादा ठीक होगा) अनुभवहीन और लोकतंत्र की परिभाश के मुताबिक मर्यादाहीन साबित हो रही है क्योंकि अगर उसकी यह उदासीनता जो उसने अन्ना के आन्दोलन के समय भी दिखाई; के कारण लोकतंत्र को कुछ हो गया तो खामियाजा उसी को भुगतना होगा क्योंकि जनता तो हमेश जनता ही रहती है लेकिन उनके प्रतिनिधि हर चुनाव के बाद जनता के वोट पर निर्भर करते हैं. लोकतंत्र में तानाशाही नहीं चलती, हमें किसी की परवाह नहीं यह भी नहीं चलता क्योंकि जिस दिन जनता को ऐसा विश्वास हो गया कि उसका जिसको उसने चुनकर भेजा है, उसे ही उसकी परवाह नहीं है उसी दिन लोकतंत्र की हत्या हो गयी ऐसा माना जायेगा और अगर ऐसा हुआ तो दोषी जनता नहीं बल्कि सरकार होगी.

महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में कहा है कि ‘अथ योगानुशासनम’ और अनुशासन का अर्थ तभी सार्थक होता होता है जब सब कुछ सीमाओं के दायरे में रहे. यदि जनता अपनी चुनी हुयी सरकार से कुछ कहने के लिए अपने घरों की सीमाओं से बाहर निकली है, देश के कोने-कोने से चलकर अपनी बात को सुनाने दिल्ली पहुंची है तो सरकार को भी चाहिए कि वो भी संसद की सीमाओं से बाहर निकलकर जनता से संपक एवं संवाद स्थापित करे. इस प्रकार से आगे आकर हुयी वार्ता से ही लोकतंत्र की गरिमा बनी रह सकती है और लोकतंत्र सिसकियाँ लेने से बच सकता है. लेकिन अगर यही सीमा खतरे के निशान से बाहर हो जाये तो तबाही निश्चित है ठीक उसी प्रकार जैसे गंगा जब तक अपनी सीमाओं में है और खतरे के निशान के अंदर बह रही है वह गंगा कही जायेगी लेकिन जब वही गंगा अपनी सीमायें लांघकर बाहर निकलेगी तो फिर बाढ़ का पानी बन जायेगी जो सिर्फ और सिर्फ विनाश का दृश्य ही दिखाएगी.

काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सन्यासी का प्रयास एक नया इतिहास रचने की दिशा में है, इस मुद्दे पर सरकार की शुष्कता और उसकी ख़ामोशी उसे कठघरे में खड़ा कर रही है. उसे अब चेतना ही होगा क्योंकि टालमटोल करने का समय निकल चुका है. सरकार का अवचेतन अवस्था से निकलना ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के मरणासन्न होते लोकतंत्र के हितकर में है.

वंदना बरनवाल

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