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“आजादी के बाद भारत को इंडिया होने का दर्द”

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क्या यही वो भारत है जिसकी कल्पना आज़ादी के मतवालों ने की थी, आज़ादी के छाछठ वर्षों में भी अगर यह प्रश्न वाचक वाक्य सामने हो तो यह स्वयं में ही बहुत कुछ कह देता है. अगर अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुए भारत में सब कुछ ठीक होता तो यक़ीनन आज यह विषय अपने आगे प्रश्नवाचक चिह्न लेकर नहीं घूम रहा होता. आज़ादी के मतवालों की कल्पना तो तब साकार होती जब स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद हम भारतीयों ने प्रमाणिकता के साथ स्वयं का तंत्र विकसित करने का प्रयास किया होता परन्तु भारतीय राजनीति ने इसकी दिशा और दशा दोनों ही बदलकर रख दी जिसके कारण हम वंचित रह गए आज़ादी के मतवालों के सपनों के आजाद भारत से. समय बीतने के साथ ही हम सभी ने इस सोच को कुछ इस प्रकार दफ़न कर दिया कि हमारी युवा पीढ़ी ने पश्चिम के ही मार्ग का अनुकरण स्वीकार करना उचित समझा लेकिन दुःख और अफ़सोस तो इस बात का है कि पूरी तरह से हम पश्चिमी सभ्यता भी नहीं अपना सके, अगर उसे ही अपना लेते तो भी शायद बात बन जाती परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हो सका.

अंग्रेजों की गुलामी के दर्द का अहसास तो हमें केवल इतिहास की किताब के पन्नों से ही होता है. उस दर्द को झेलने के बाद जब हमारा देश आजाद हुआ होगा तो यक़ीनन आज़ादी के लिए कुर्बानी देने वालों की सोच यही रही होगी कि वे अपनी अगली पीढ़ियों को उस दर्द से छुटकारा दिला पायें. वे मतवाले कामयाब तो हुए लेकिन उस कामयाबी को निजी स्वार्थ और राज करने की नीति में बदलकर चंद लोगों ने देश को आगे बढ़ने ही नहीं दिया. आधुनिक चिकित्सा पद्धति जैसे आज भी दर्द की दवा नहीं ढूंढ पाई है वैसे ही हम भी इस राज-नीति का तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे हैं.

भारत के संविधान की रक्षा करने का शपथ लेने वाले हमारे नेता संविधान की कुछ चूकों का भरपूर फायदा उठाते हैं और धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता, आरक्षण आदि के नाम पर समाज को विभक्त करते रहते हैं लेकिन इन सबके बीच वे यह भूल जाते हैं कि दरअसल समाज और राज्य दोनों एक दूसरे के मात्र पूरक ही नहीं होते हैं बल्कि पूरक होने के साथ ही एक दूसरे के नियंत्रक भी होते हैं. परन्तु राज करने के लिए जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर दी जाती हैं कि समाज में कभी संतुलन आये ही नहीं. आखिर क्यों? बांटने वाला ये फंडा तो अंग्रेजों का था लेकिन अंग्रेजों के मानस पुत्र उनसे दो कदम आगे निकल गए. अंग्रेजों ने बताया कि बांटो और राज करो तो इन्होने ‘बांटो’ के दोनों अंग्रेजी शब्दावली का इस्तेमाल कर लिया ‘Divide’ एवं ‘Distribute’. कभी मोबाइल मुफ्त, तो कभी साइकिल मुफ्त और कभी लैप टॉप मुफ्त बस वोटरों को लालच देकर ‘राज’ करने की ‘नीति’. मासूम आम जनता इतना भी नहीं समझ पाती है कि ये सब उनके भलाई के लिए है या फिर सरकार और कंपनियों के भलाई के लिए है. समाज के पूरे सिस्टम को सही करने के लिए सरकार के जो कदम उठने चाहिए इन छाछठ वर्षों में वो कदम नहीं उठाया जा रहा है.

इसलिए मेरा मानना तो यही है कि आज के नीति नियंता उन अंग्रेजों से भी दो एकदम आगे ही हैं, उन्होंने राज करने के लिए केवल ‘Divide’ किया था और इन्होने राज करने के लिए ‘Divide’ और ‘Distribute’ दोनों ही किया है. फिर कैसे हो सकता है आज़ादी के मतवालों की कल्पना का यह भारत? अब तो दिनों दिन इन कुव्यवस्थाओ. को देखते हुए यही लगता है कि भारत को इंडिया से आजाद कराने के लिए एक बार पुनः आजादी के मतवालों को अवतरित होना होगा.

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