- 68 Posts
- 449 Comments
कहते हैं भूत तो महान था भविष्य भी महान है आप यदि संभाल लें उसे जो वर्तमान है. यह कथन सत्य एवं सर्वमान्य है और इसमें संशय की कोई गुंजाईश नहीं है ऐसे वाक्य दैनिक जीवन में हम जैसे आम लोगों को प्रेरित करने के लिए ही ठीक हैं. किन्तु यदि देश के बारे में बात की जाये, देश को चलाने और तमाम सुधारों की बात की जाये तो व्यवस्थाओं के मद्देनजर प्रथम पंक्ति में कही हुयी बातें किसी भी कोण से ठीक नहीं उतराती हैं. किसी इतिहासकार से वार्ता कीजिये तो भारत की गौरव गाथा सुनकर अत्यंत ही आत्मिक शांति और सुकून मिलेगा, अंग्रेजों के खिलाफ हम ऐसे लड़े वैसे लड़े. लेकिन अक्सर मैं सोचने पर मजबूर हो जाती हूँ कि आखिर हम गुलाम हुए ही क्यों, आखिर ऐसा क्या था अंग्रेजों में जो सात समंदर पार से आकर वर्षों तक हमको गुलाम बनाकर रखा मुठ्ठी भर लोगों ने जबकि उस समय तो आज के समय के हिसाब से तकनीकी दृष्टि से दुनिया बहुत पीछे थी. ना ही संचार के साधन थे और ना ही परिवहन के इतने साधन थे फिर सात समंदर पार से चंद लोग आकर हमीं को हमारे ही देश में गुलाम बनकर रहने पर मजबूर कर दिया. आखिर क्या कमी थी उस समय के भारत में और हमारे पूर्वजों में?
अगर मैं इतिहास की विद्यार्थी होती तो संभवतः जरूर मैं भी बहुत कुछ कह सकने और समझ सकने में समर्थ होती परन्तु मैं ठहरी विज्ञानं की छात्रा हर चीज में वैज्ञानिक नजरिया ही ढूंढती हूँ और शायद इसीलिए विचलित भी होती हूँ. उलझन का कारण सिर्फ गुलामी का दौर ही नहीं है बल्कि आज़ादी के बाद का दौर उससे कहीं ज्यादा उलझनें पैदा करता है. इसलिए जहाँ तक मैं समझ सकी हूँ तो मेरे नजरिये से पुराणों के समय का भारत सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है. उस समय जो तकनीकी हमारे यहाँ थी निश्चित तौर पर और कहीं नहीं थी और इसके प्रमाण में हमारे ग्रंथों में एक दो नहीं अपितु अनगिनत बार वर्णित हैं. अतः इस लिहाज से मैं भूत तो महान था मानने के लिए तैयार हूँ लेकिन क्या भविष्य महान है? क्या हम वर्तमान को इस प्रकार से संभाल रहे हैं कि हम भारतवासियों का भविष्य महान हो सके. क्या कोई एक भी ऐसा क्षेत्र है जिसमें हमारा प्रयास हमें एक सुनहरे भविष्य की झलक दिखला रहा है. बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य किसी भी क्षेत्र में हमारी तरक्की के ग्राफ की रफ्त्तार नजर ही नहीं आ रही है और सब के सब राजनीति के भेंट चढ़ते जा रहे हैं.. ये सब तो मूलभूत आवश्यकताएं हैं जिसकी पूर्ति ही नहीं हो पा रही है तरक्की क्या खाक होगी, वजह स्पष्ट है देश में फैलते काले धन का कारोबार, बढ़ता भ्रष्टाचार और उसके कोख से जन्म लेती अर्थ की कमी.
अब सवाल यह उठता है कि जिम्मेदारी किसकी है, उनकी जो दो जून की रोटी, बच्चों की उचित शिक्षा और एक छोटे आशियाने की चिंता में ही व्यस्त हैं और अपना पूरा जीवन इसी में व्यतीत कर देते हैं या उनकी जो लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं में सत्ताओं पर आसीन होकर गुम हो गए और इन सबसे दूर हो गए हैं. गए तो देश चलाने के लिए लेकिन व्यस्त हो गए केवल राजनीति में, देश जाये गर्त में उनकी बला से. जब आर्थिक सुधारों की बात होगी तो गठबंधन की मजबूरियों का रोना रोयेंगे लेकिन जब राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव की बात होगी तो साथी दलों की हलक में ऊँगली डालकर भी उग्ल्वायेंगे कि हम सब एक है. काश अपने नेताओं के ऐसे प्रयासों को हम आम जनता देश की उन्नति के लिए भी करते हुए देख पाते तो शायद आज हम अपने आपको धन्यवाद दे पाने की स्थिति में होते कि हमारा चुनाव ठीक था. लेकिन शायद भूल हमारी है और बार बार पिछले पैंसठ वर्षों से अपनी इसी भूल को दोहराते – दोहराते हम ऐसी भूल करने के आदी हो चुके हैं. इसलिए अब तो हम अपनी इस भूल पर ना तो पछतावा करते हैं और ना ही जब सुधारने का वक्त आता है तो सुधारने का प्रयास ही करते हैं. सब चलता है इसकी आदत बना ली है हमने, देश को लूटने वाले लूटते रहें हम तो खुश हैं अपने दैनिक जीवन की आपूर्ति करने में, हमारी बला से. शायद यही है तरक्की की नयी परिभाषा.
Read Comments