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व्यापार के नए साधन

WHO WE ARE
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हाल ही में उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान राज्यसभा सदस्य बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती को आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामले में उच्चतम न्यायलय से बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में राहत मिली और कहा ये जा रहा है कि सीबीआई ने ठीक ढंग से मामले को न्यायलय के समक्ष नहीं रखा. इससे पूर्व टू जी घोटाले के मुख्य आरोपी ए राजा जमानत के पश्चात आराम से संसद के गलियारे में घूमते देखे गए. ये वाकये उदहारण हैं हमारे देश में एक नए प्रकार के व्यवसाय की और इशारा करने के लिए. आज़ादी के बाद से लेकर अब तक अगर तमाम घोटालों के रिकार्ड अगर खंगाले जाएँ तो बड़े से बड़े उद्योगपति भी चौंक जायेंगे. राजनीति के नाम पर यह नया व्यापार या दूसरे शब्दों में उद्यम कह लीजिए वाकई हैरत में डाल देने वाले हैं. घोटाले के माध्यम से वर्ष दर वर्ष माननीयों की पूँजी उम्मीद से कहीं अधिक बढोत्तरी देखी जा सकती है. हर घोटाला और उसमें लूटी गयी रकम पहले से कहीं ज्यादा बढ़कर.होती है. यह हकीकत उस देश की है जहाँ की आबादी सवा सौ करोड़ पहुँच रही है और जहाँ आज भी सरकारी गणना के अनुसार सत्तर फीसदी लोग बमुश्किल बीस रुपये प्रतिदिन में गुजर-बसर करते हैं. नेताओं की इस अंधाधुंध कमाई को दो तरीके से देखा जा सकता है, पहला यह कि राजनीति अपने आप में अब पूरी तरह से एक उद्योग का रूप ले चुका है और दूसरा हमारे देश में श्रम का मूल्यांकन का आधार बदल गया है.
अगर श्रम के मूल्यांकन की बात करें तो यक़ीनन स्थिति बहुत ही भयावह हो चुकी है. एक मजदूर, एक किसान अथक रूप से शारीरिक श्रम के पश्चात जो कुछ कमा पाता है है उससे सैकड़ों गुना कमाई बौद्धिक श्रम करके चंद लोग हासिल कर लेते हैं. इतना वृहद इतना विशाल अंतर अब खौफ पैदा करता है. क्या शारीरिक श्रम की कोई वैल्यू नहीं है अगर ऐसा है तो क्या हमने शारीरिक श्रम करने वाले और उसके परिवार वालों को शिक्षा का समान अवसर प्रदान किया है? किसी नेता से पूछा जाये तो उत्तर शायद हाँ में होगा लेकिन वास्तविकता में यह उत्तर वर्षों से नहीं में था आज भी है और शायद कल भी रहेगा. फिर यह दूरी कैसे मिटेगी. क्या मासूम जनता सिर्फ एक वोट बैंक है जिसकी अपनी कोई हैसियत नहीं, क्या उसकी जरुरत हर पाँच साल बाद ही पड़ती है? आज़ादी के पैसठ वर्षों में हमारे नीति नियंता क्यों नहीं इस और ध्यान दे पाए, उन्हें जवाब तो देना ही होगा. नेता शब्द की परिभाषा इतनी क्यों बदलती जा रही है, जन सेवा की भावना कहाँ दब गयी है, इन नेताओं का बैंक बैलेंस कैसे दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की पर है. ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके जवाब आज नहीं तो कल, आने वाली पीढ़ी मांगने वाली है.
जब कभी भी घोटालों और भ्रष्टाचार की बातें होती हैं तो मुझे उच्चतम न्यायलय द्वारा दी गयी एक टिपण्णी याद आ जाती है कि क्यों ना घूस के रेट तय कर दिए जाएँ. क्या इसका मतलब यह है कि हमारी न्याय व्यवस्था भी मजबूर है ऐसी शासन व्यवस्था के सामने. इसीलिए शायद यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हमारे नेताओं को अब एक घोटाला कंपनी ही खोल लेनी चाहिए जिसकी शेयर धारक आम जनता हो और व्यवस्था ऐसी बने कि घोटाले से जो रकम लूटी जाये उसका अंश स्वतः आम जनता को मिल जाये क्योंकि आखिरकार ऐसी घोटाला कंपनी द्वारा लूट की रकम में आम जनता के खून पसीने की कमाई ही लगी होगी.
…..वंदना बरनवाल

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