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टूटता मौन

WHO WE ARE
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मान, सम्मान और अपमान के शब्दों को लेकर हमारे माननीय सांसद आजकल जिस प्रकार के प्रश्न उठाते हैं वह अपने आप में एक चर्चा का विषय ही है. गरीबी की मार से जूझता आम जन किसे सही माने और किसे गलत इस चुनाव को लेकर थोड़ी उहापोह की स्थिति है. ऐसी स्थिति में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी मोर्चा संभाल लिया है अपनी रेटिंग बढ़ाने के चक्कर में. पुराने जमाने में प्रिंट मीडिया और लिखे गए शब्दों की ताकत बहुत ज्यादा हुआ करती थी क्योंकि अख़बारों का ही चलन था पर अब हम आधुनिक हो गए हैं और इलेक्ट्रानिक मीडिया और बोले हुए शब्दों और दिखाए हुए समाचारों पर ज्यादा भरोसा करते हैं. इस भरोसे या दूसरे शब्दों में निर्भरता के कारण हमारे स्वयं की निर्णायक क्षमता ही क्षीण होती जा रही है और साथ ही लोगों के विभिन्न कोणों से आते वक्तव्य हमारी सोच को भी उलझाते जा रहे हैं. फिर भी यकीनन आज़ादी के स्वर्णिम इतिहास के पन्नों में जो पंक्तियाँ दर्ज होंगी वो केवल देखि या सुनी सुनायी बातों से नहीं बल्कि कलम की लिखी हुयी ताकत से ही दर्ज होंगी.

आज हम भारतीय एक ऐसी दशा और वस्तुस्थिति में जी रहे हैं जहाँ हर रोज़ एक नया घोटाला सामने आता है और कमोबेस उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक कनेक्शन भी होता है और कुछ ही दिनों में वह हमारे लिए मात्र एक समाचार बनकर रह जाता है, यह गरीबी और भ्रष्टाचार की मार से झूझते भारत के लिए यह सब आश्चर्यजनक होने के साथ ही सत्य भी है.. संभवतः हिंदी या अंग्रेजी भाषा के वर्णमाला का कोई भी ऐसा अक्षर नहीं बचा होगा जिसके नाम से घोटाला न हुआ हो. आखिर भ्रष्टाचार का इस कदर बढ़ना देन किसकी है, इसका दोषी कौन है, क्या वही जिनके मान और सम्मान को इसके खिलाफ उठे शब्दों से ठेस पहुँच रही है? इन सवालों के उत्तर में हम और हमारी लेखनी भी शनैः शनैः मौन और खामोश बनती जा रही है और कब तक बनी रहेगी इसका पता नहीं. वास्तव में तमाशा करने वाले तो चंद लोग ही होते हैं और तमाशे को देखकर तालियाँ बजाने वाले ढेरों पर घोटालों का ये जो तमाशा हमारे देश में शुरू हो चुका है उस पर तालियों की उम्मीद कौन लोग कर रहे हैं?. केवल तमाशबीन बनकर भीड़ के हिस्से बने रहने की इस आदत को छोड़ पाने में हमारी कौन सी बेबसी और झिझक है? बार-बार पूछ बैठती हूँ अपने आप से ये प्रश्न. आखिर कौन खोजेगा इसका समाधान? क्या अकेले एक बाबा रामदेव और चंद सामाजिक कार्यकर्त्ता? फिर तो मिल चुका समाधान. यदि समाधान ढूंढना है तो हे माननीयों आप भी खोजिये इसका समाधान और जब आपको लगे कि आप किसी उत्तर के करीब पहुँच चुके हैं तो आप भी मौन तोड़िये क्योंकि अगर मौन को देर से तोड़ा जाए तो दुनिया आप पर ही हँसेगी.

इसी संदर्भ में एक कहानी याद आ गयी. आज़ादी की लड़ाई के समय क्रांतिकारियों के साथ एक संत भी जेल में कैद थे. संत ने मौन धारण कर रखा था और धीरे-धीरे लोग उन्हें मौनी बाबा के नाम से जानने लगे. जेल में उनसे मिलने आने वाले लोग भेंट स्वरूप उनके लिए केले आदि फल लाने लगे. एक दिन संत के पास केला ज्यादा इकठ्ठा हो गया तो संत ने उसमें से दो तीन केले अपने लिए बचाकर बाकी केलों को क्रांतिकारियों को बांटना शुरू कर दिया. जेल में एक लड़का थोडा चंचल और दुष्ट स्वभाव का था. जब सारे केले समाप्त हो गए तो लड़के ने संत के हिस्से के तीन केलों में से एक केला उठा लिया. चूँकि संत मौन धारण किये हुए थे अतः जब तक वो लोगों को इशारे से इसकी सूचना देते तब तक लड़का केला खा चुका था. लड़के ने पुनः दूसरा केला उठा लिया तो संत गुस्से से उठ खड़े हुए और मौन धारण किये होने के कारण पास पड़े कागज़ पर लिखने लगे कि इस लड़के को रोको नहीं तो यह मेरे हिस्से का दूसरा केला भी खा जायेगा. लड़का शैतान था और इतनी देर में उसने दूसरे केले को भी सफाचट कर दिया. दूसरा केला समाप्त हो गया और लड़के ने तीसरे केले को भी उठा लिया. ये सब देख संत से रहा नहीं गया एवं अंततः उन्होंने आखिर अपना मौन तोड़ ही दिया और चिल्ला उठे कि उस दुष्ट को रोको नहीं तो वो मेरे हिस्से का आखिरी केला भी खा जायेगा. लोग जब तक उनकी बात सुनते और उस पर कार्यवाही करते तीसरा और आखिरी केला भी समाप्त हो चुका था. ऐसा होते ही वहां मौजूद सभी लोग संत के ऊपर हँसने लगे कि देखो एक केले के पीछे संत ने अपना मौन व्रत तोड़ दिया.

कहने का मतलब ये है कि मौन रहना वैसे तो तर्कसंगत है क्योंकि मौन का अर्थ होता है मन का न होना. परन्तु कदाचित यही मौन यदि सही समय पर नहीं तोडा जाये तो कभी-कभी जग हँसाई भी होती है. भ्रष्ट व्यवस्थाओं और भ्रष्टाचारियों को लेकर मंत्री से लेकर संतरी तक सभी मौन धारण किये हुए हैं. जैसे मन ही मन हम उन्हें अपनी मौन सहमति प्रदान कर रहे हों. ताज्जुब तो ये है कि यह मौन और बेबसी सिर्फ आम जन की नहीं है बल्कि लोकतंत्र के ढांचे को मजबूत रखने वाले खम्बे विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका भी असहाय की स्थिति में ही हैं. यहाँ तक कि लोकतंत्र का चौथा खम्बा कहा जाने वाला मीडिया भी कभी बेबसी से कराहता है तो कभी पेड समाचारों को लेकर विवादित हो जाता है. आखिर क्यों? क्या मुठ्ठी भर लोग इतने ताकतवर हो गए हैं? ऐसी दशा में भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ जो अपना मौन तोड़ चुके हैं वे जाने अनजाने में समर्थ लोगों की चुप्पी के कारण आक्रोशित करने वाले शब्द बाण चला देते हैं. संभवतः इसी कारण बाबा रामदेव, अन्ना हजारे, श्री श्री रविशंकर जैसे संत और महात्माओं के मुंह से अक्सर शब्द फिसल जाते हैं. ऐसे शब्द जिनसे हमारे माननीयों को ठेस पहुँचती है वो सुनने में भले ही असंसदीय शब्द प्रतीत हों परन्तु वास्तविकता में ऐसे शब्द काले धन और भ्रष्ट व्यवस्थाओं के लगातार प्रहार से उपजी एक कराह है जो राजनीति तो नहीं जानते लेकिन राष्ट्र नीति का पैगाम जन-जन तक अवश्य पहुंचा रहे हैं.

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