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कक्षा छः में पढ़ रहे मेरे बेटे को उसके स्कूल से एक फॉर्म मिला जिसमें उसे अन्य विवरणों के अतिरिक्त अपने धर्म, जाति तथा श्रेणी का विवरण भी दर्शाना था. अपने सामाजिक कार्यों के साथ-साथ मैं अपने ऊपर भी घमंड करती थी कि मैंने अपने बेटे का लालन-पालन इस प्रकार किया है कि वह अब तक धर्म, जाति व श्रेणी जैसे शब्दों से दूर है, परन्तु विवरण भरते समय मैं उसके प्रश्नों का संतोषपरक जवाब नहीं दे पा रही थी और साथ ही बाल मन की पीड़ा को भी दूर करने का प्रयास भी असफल जा रहा था, क्योंकि मेरे जवाबों से अचानक ही वह अपने क्लास तथा आस-पड़ोस के मित्रों से अपनी तुलना करने लग गया और ना चाहते हुए भी मैं उस बाल मन में राजनीति के कटीले व जहरीले वृक्षों से पैदा एक ऐसा बीज अनजाने में मैं बो चुकी थी जिसके साए से भी उसे दूर रखना चाहती थी. आखिर एक मासूम की जाति और श्रेणी क्या हो सकती है? अंततः गन्दी भारतीय राजनीति के सांप ने उसे भी डस ही लिया.
-वंदना बरनवाल
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